Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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पं० मिलापचन्द्र कटारिया
जीवतत्त्व विवेचन
संसार अनादिकाल से छह द्रव्यों से परिपूर्ण है. उसमें एक जीवद्रव्य भी है. जीवों की संख्या सदा से ही अनंतानंत है. ये जितने हैं उतने ही रहते हैं, न घटते, न बढ़ते हैं. कोई भी जीव नया पैदा नहीं होता है और न किसी का विनाश ही होता है. अमुक प्राणी पैदा हुआ, अमुक मर गया, ऐसा जो कहा जाता है उसका अर्थ इतना ही है, कि किसी अन्य देह से निकलकर जीव इस देह में आया है. बस इसे ही उसका जन्म होना कहते हैं. और इस देह से निकलकर जीव अन्य देह में चला गया, बस यही उसका मरण कहलाता है. तत्त्वतः प्रत्येक जीव अजन्मा और अविनाशी है. उन अनंतानंत जीवों में कई जीव अशुद्ध रूप में और कई शुद्ध रूप में पाये जाते हैं. जो अशुद्ध रूप में हैं उन्हें संसारी जीव और शुद्ध रूप वालों को मुक्त जीव कहते हैं.
Jain Edinte
सब द्रव्यों में एक जीव द्रव्य ही चेतनामय है बाकी सब अचेतन-जड़ हैं. संसार में जो पदार्थ नेत्र आदि इंद्रियों द्वारा ग्राह्य होते हैं वे सब पुद्गल द्रव्य हैं. पुद्गलद्रव्य रूपी अर्थात् मूर्त्त होने से इंद्रियगोचर है. किंतु जीव द्रव्य रूपी व मूर्तिक नहीं है अतः वह किसी भी इंद्रिय के द्वारा ग्राह्य नहीं है. इसका अर्थ यह नहीं है कि वह शून्य रूप है. जीव भी अपनी सत्ता अवश्य रखता है. उसका भी कुछ न कुछ आकार रहता है. संसार-अवस्था में वह देह के आकार में रहता है और मुक्त अवस्था में उसके देह नहीं रहती, तथापि जिस देह को छोड़कर वह मुक्त होता है उस देह के आकार में ( किंचित् न्यून) रहता है. जीव में फैलने और सिकुड़ने की शक्ति विद्यमान है. वह अगर अधिक से अधिक फैले तो अकेला ही सारी सृष्टि को व्याप्त कर सकता है किंतु उसे विभिन्न भवों में जितने प्रमाण का देह मिलता है उतने ही प्रमाण का होकर रहना पड़ता है. भवांतर में ही नहीं, किसी एक भव में भी बाल्यावस्था के छोटे शरीर में छोटा बनकर रहता है, युवावस्था के बड़े शरीर में बड़ा बनकर रहता है फिर वही शरीर वृद्धावस्था में कृश हो जाता है तो उसमें कृश होकर रहने लगता है. जैसे दीपक का प्रकाश छोटे बड़े कमरे में सिकुड़ता फैलता है, वैसे ही जीव भी बड़ी-छोटी देह में फैलता सिकुड़ता है. प्रत्यक्ष में यह भी देखा जाता है कि जब मनुष्य के दिल में कामवासना पैदा होती है तो उसकी कामेन्द्रिय का प्रमाण बढ़ जाता है. उसी के साथ उसके आत्मप्रदेश भी बढ़ जाते हैं और कामेन्द्रिय का संकोच होने पर उसके आत्मप्रदेश भी संकुचित हो जाते हैं.
यहाँ शंका की जा सकती है कि जैसे दीपक का ढक्कन हटा देने पर उसका प्रकाश फैल जाता है, उसी तरह मोक्ष में जीव के साथ देह के न होने से वह लोक प्रमाण क्यों नहीं फैलता है ? इसका समाधान यह है कि जैसे कोई आदमी पाँच हाथ की लंबी डोरी को समेट कर अपनी मुट्ठी में बंद कर ले. फिर कालांतर में मुट्ठी खोल देने पर भी वह डोरी बिना किसी के फैलाये अपने आप नहीं फैलती है, उसी तरह मोक्ष में देह के न रहने पर आत्मा के प्रदेश भी अपने आप नहीं फैलते हैं.
जीव को देहप्रमाण कहने का अर्थ यह है कि शरीर के प्रायः सभी अंशों में आत्मा के अंश मिले हुए हैं. जैसे दूध में घृत के अंश मिले रहते हैं. शरीर और आत्मा के अंश ऐसे कुछ घुलमिल जाते हैं कि उनकी संयुक्त क्रियाओं में कहीं तो आत्मा का असर शरीर पर होता दिखाई देता है और कहीं शरीर का असर
आत्मा पर पड़ा दिखाई देता है. जैसे
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