Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३६६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
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से स्वीकार किया है परन्तु उसके स्वरूप और नित्यत्व आदि के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ रही हैं. कोई उसे परमाणु रूप मानता है, कोई विश्व-व्यापी स्वरूप वाला मानता है, कोई संकोच-विस्तारमय प्रदेशों वाला मानता, तो कोई उसे ईश्वरीय रूप वाला मानता है. कोई नित्य कहता है तो कोई अनित्य ही बतलाता है. इस तत्त्व की अन्तिम दशा मुक्त रूप कही गई है परन्तु मोक्ष के स्वरूप के संबंध में भी विभिन्न मत हैं. कोई उसे अनन्तकालीन कहते हैं तो कोई परिमितकालीन बतलाते हैं. बौद्ध-दर्शन तो इस विषय में अवक्तव्य जैसी स्थिति में है और दृष्टान्त रूप में "दीप-निर्वाणवत्" कह कर छुटकारा पा लेता है. इन विविध दार्शनिक विवेचनाओं में भाषा-भेद, प्ररूपणा-भेद, कल्पना-भेद और व्याख्या-भेद के होते हुए भी आत्मा के प्रति किसी को अस्वीकृति नहीं है. इससे प्रमाणित होता है कि प्रायः सभी दार्शनिक आत्मा को एक स्वतंत्र तत्त्व स्वीकार करते है। जब एक बार आत्मा का अस्तित्व स्वीकार कर लिया गया तो इसके बाद में उत्पन्न होने वाले जन्म, मरण, पाप, पुण्य, वासना, संस्कार, मलीनता, पुनीतता, अर्धविमलत्व, पूर्ण विमलत्व, अज्ञानत्व, ज्ञानत्व, अमरत्व, ईश्वरत्व आदि के विषय में उत्पन्न होने वाले प्रश्नों की भी विवेचना की गई. इनका अपनी-अपनी शैली से तथा अपनी-अपनी भाषापद्धति से समाधान किया गया और भारतीय दर्शन-क्षेत्र में समुच्चय रूप से यह एक पूर्ण सत्य स्थापित किया गया कि आत्मा अवश्यमेव है तथा अपरिमित शक्ति-संपन्न एवं अचिन्त्य स्वरूप वाले ईश्वर तत्त्व से इसका घनिष्ठ संबंध है. इस घनिष्ठ सम्बन्ध के विषय में भी मुख्यत: दो विचार धाराएँ प्रस्तुत हुई हैं. नैयायिक वैशेषिक दर्शन आत्मा तथा ईश्वर दोनों को पृथक-पृथक् मानते हैं, जब कि वेदान्त एवं सांख्य आदि प्रमुख संप्रदाय आत्म-तत्त्व में काल्पनिक भिन्नता बतलाते हुए मूलतः दोनों को एक ही तत्त्व बतलाते हैं. बौद्ध दर्शन आत्मतत्त्व और ईश्वरत्व के सम्बन्ध में विशेष उलझने की आवश्यता नहीं बतलाता हुआ भी इसके अस्तित्व को स्वीकार करता है, यद्यपि पश्चात्वर्ती सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् नागार्जुन तथा दिङ्नागादि आत्म-तत्त्व के सम्बन्ध में आश्चर्यजनक 'शून्यता' जैसी कल्पताएँ करते हुए पाये जाते हैं फिर भी प्रच्छन्न रूप से आत्मतत्त्व की स्वीकारोक्ति उनमें भी प्रतीत होती है.
बौद्ध ताकिकों में सर्व-प्रथम और प्रधान आचार्य नागार्जुन हुए. इनका काल ईसा की दूसरी शताब्दी है. ये महान् प्रतिभाशाली और प्रचण्ड ताकिक थे. इन्होंने 'माध्यमिक-कारीका' नामक तर्क का प्रौढ़ एवं गम्भीर ग्रन्थ बनाया और बौद्धसाहित्य का मूल आधार "शून्यवाद" निर्धारित किया. इसके आधार पर शेष भारतीय दार्शनिक मान्यताओं का तथा तों का प्रबल खण्डन किया. दिङ्नागादि पश्चात्-ताकिकों ने इस विषक को विशेषरूप से आगे बढ़ाया और भारतीय तर्कशास्त्र सम्बन्धी गहन साहित्य का गूढ़ तम और गम्भीरतम रूप प्रस्तुत किया. जनदर्शन में आत्मतत्त्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है और आत्मतत्त्व की पूर्ण विकसित अवस्था को ही ईश्वरत्व माना गया है. ईश्वरत्व-प्राप्ति के बाद आत्मा पूर्ण रूप से कृतकृत्य तथा विमलतम स्थिति वाला हो जाने से जन्ममरण आदि रूप भौतिक हस्तक्षेप से एवं तज्जनित विविध संसारचक्र रूप घट-माल से सर्वथा और सदैव के लिये परिमुक्त हो जाता है. जीव तत्त्व को यह सांसारिक अवस्था कब और कैसे प्राप्त हुई ? इसका उत्तर यही है कि यह समस्या अनादि कालीन है और इसलिये इसका उत्तर यही हो सकता है कि सांसारिक अवस्था प्रत्यक्ष रूप से मलीन दिखाई दे रही है, इसको पवित्र बनाने का ही विचार करो और यह मत पूछो कि यह आत्मा क्यों और कब से तथा कैसे मलीन हुई है ? मूल स्वरूप में सभी आत्माएँ अरूपी हैं, अजर हैं, ऊँच-नीच अवस्थाओं से रहित हैं और सभी प्रकार के लेपों से रहित हैं. जैन-शास्त्रों में आत्मतत्त्व का लक्षण उपयोगमय, ज्ञानमय अथवा अनुभूतिमय कहा गया है, जड़-तत्त्व में ज्ञान, अनुभव, उपयोग और विवेक जैसी शक्ति का सर्वथा अभाव है. यह अन्तर ही इन दोनों का असाधारण लक्षण है.
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