Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३८० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
अनन्त भेद-पुद्गल द्रव्य की संख्या, क्या परमाणु और क्या स्कन्ध, सभी के रूप में अनन्त है. एक पुद्गल दूसरे पुद्गल से, स्पर्श, रस आदि किसी-न-किसी कारण से भिन्न या असमान भी हो सकता है अतः हम कह सकते हैं कि पुद्गल भी अनन्त हैं.' वैज्ञानिक वर्गीकरण-विज्ञान ने सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य [Matters of Energies] को तीन वर्गों में रखा है. ठोस [Solids], द्रव [Liquids] और गैस [Gases]. विज्ञान की यह भी मान्यता है कि ये तीनों वर्गों के पुद्गल सदा अपने-अपने वर्ग में ही नहीं रहे आते, वे अपना वर्ग छोड़कर, रूप बदलकर दूसरे वर्गों में भी जा मिलते हैं. विज्ञान के इस सिद्धान्त से जैन दर्शन को कोई बाधा तो नहीं ही पहुँचती, बल्कि उसकी पुष्टि ही होती है. जैन दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि जल जो द्रव [Liquid] पुद्गल है, पौधे आदि के रूप में ठोस पुद्गल बन जाता है, उद्जन [Hydrogen] आदि दो गैसें [Gases] जल के रूप में तरल [Liquid] बन जाती हैं. पुद्गल का कार्य-प्रत्येक द्रव्य का अपना कार्य होता है. शास्त्रीय भाषा में इस कार्य को उपग्रह या उपकार करते हैं. यह उपग्रह, पुद्गल द्रव्य अपने स्वयं या अन्य पुद्गल द्रव्यों के प्रति तो करता ही है, जीव द्रव्य के प्रति भी करता है. पुद्गल द्रव्य द्वारा किसी अन्य पुद्गल द्रव्य का उपग्रह होता है, इसका उदाहरण साबुन और कपड़ा है. साबुन कपड़े को साफ कर देता है, दोनों पुद्गल हैं. एक पुद्गल ने दूसरे पुद्गल का उपग्रह किया, यह स्पष्ट ही है. पुद्गल-जीव द्रव्य का उपग्रह भी अनेक रूपों में करता है. वह जीव के परिणमन के अनुसार कभी शरीर तो कभी मन और कभी वचन तो कभी श्वासोच्छ्वास के रूप में अपना स्वयं का परिणमन करता हुआ, उस परिणमन के माध्यम से जीव द्रव्य का उपग्रह करता रहता है. सुख, दुःख, जीवन और मरण के रूप में भी पुद्गल द्रव्य, जीवद्रव्य का उपग्रह करता है. पुद्गल द्रव्य के द्वारा जीव द्रव्य के उपग्रह का यह अर्थ कदापि नहीं कि पुद्गल-द्रव्य द्वारा जीव-द्रव्य में कोई प्रक्रिया या परिणमन किया-कराया जाता है. इसका अर्थ, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, केवल यही है कि जीवद्रव्य का परिणमन जीवद्रव्य में और पुद्गल-द्रव्य का परिणमन पुद्गल-द्रव्य में होता है लेकिन संयोगवश दोनों के परिणमनों में स्वभावतः, ऐसी कुछ समानता या एकरूपता बन पड़ती है कि हमें--जीवद्रव्यको लगता है कि यह परिणमन हममेंजीव द्रव्य में-हो रहा है. दोनों द्रव्यों के स्वतन्त्र परिणमन के सिद्धान्त का ही फल है कि एक ही वस्तु के उपभोग से अनेक लोगों-जीवों--में अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होती हैं. एक उदाहरण लीजिए. किसी अत्यन्त रूपवती वेश्या का मृत शरीर पड़ा है. एक साधु उसे देखकर सोचता है कि यदि इस वेश्या ने अपने शरीर के अनुरूप सुन्दर कार्य भी किये होते तो कितना कल्याण होता? इसका एक व्यभिचारी उसे देखकर सोचता है—यदि जीवित होती तो इसे जीवन भर न छोड़ता ! कोई व्यक्ति उसे देखकर सोचता है कि अच्छी मरी पापिन, अपना शील बेचा है इसने ! एक उस वेश्या का रिश्तेदार है जो स्नेहवश फूट-फूटकर रो रहा है. एक अजनवी उसे देखकर भी उसकी स्थिति पर कुछ विचार नहीं करता. यहां जो वस्तुत: जीवद्रव्य के अपने परिणमन की तारीफ है कि वह होता तो अपने आप है और लगता है कि पर-पुद्गल द्रव्य अथवा किसी अन्य जीव-द्रव्य के द्वारा कराया जा रहा है. वेश्या के मृत शरीर को देखकर होने वाला साधु का वैराग्य, व्यभिचारी की लम्पटता, असहिष्णु की घृणा, रिस्तेदार का विलाप और अजनवी की मध्यस्थता, यही सिद्ध करते हैं कि जीवद्रव्य का परिणमन उसके अपने उपादान या अन्तरंग कारण [material cause] पर ही निर्भर है, पुद्गल द्रव्य तो केवल निमित्त या बाह्य कारण [outer cause] है.
१. आचार्य अकलंक देव : तत्त्वार्थराजवार्तिक, १० ५, सू० २५, वा० ३. २. शरीरबाड-मनः-प्राणापानाः पुद्गलानाम् । --आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०५, मू०१६. ३. सुख-दुःख जीवित-मरणोपग्रहाश्च | -वही, अ०५, सू० २० ।
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