Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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इन्द्रचन्द्र शास्त्री : जैनदर्शन : ३६३
हैं और शेष ५ जीव की आध्यात्मिक अवस्थाओं से सम्बन्ध रखते हैं. उनका निरूपण आचारमीमांसा में किया जायगा. यहां ६ द्रव्यों के रूप में जीव और अजीव तत्त्व का प्रतिपादन किया जाता है.
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छह द्रव्य
द्रव्य का लक्षण है वह पदार्थ जिसमें गुण और पर्याय विद्यमान हों. जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में अनेक गुण होते हैं और वह प्रतिक्षण बदलता रहता है. बौद्धदर्शन केवल गुण और पर्याय अर्थात् अवस्थाओं को मानता है. उनके आधार के रूप में किसी पृथक् सत्ता को नहीं मानता. दूसरी ओर अद्वैत वेदांत आधारभूत सत्ता को वास्तविक मानता है और उसमें दिखाई देने वाले गुण एवं अवस्थाओं को कल्पित. जैनदर्शन दोनों को वास्तविक मानता है. ६ द्रव्य निम्नलिखित हैं. (१) जीवास्तिकाय (२) पुद्गलास्तिकाय (३) धर्मास्तिकाय (४) अधर्मास्तिकाय (५) आकाशास्तिकाय और (६) काल. अस्तिकाय शब्द का अर्थ है परमाणु, प्रदेश, या अवयवों का एक पिण्ड होकर रहना. जीव, पुद्गलादि में वे एक साथ रहते हैं. किन्तु काल के अंश एक साथ नहीं रह सकते. वहां एक के नष्ट होने पर ही दूसरा अस्तित्व में आता है. इसलिए उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया. (१) जीवास्तिकाय-जीव का अर्थ है चेतन या आत्मा. जैनदर्शन में इसका स्वरूप अनंत चतुष्टय अर्थात् अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य के रूप में किया जाता है. साथ ही वह अमूत्तिक है अर्थात् उसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं है. प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् आत्मा है और वह जिस शरीर में प्रवेश करता है उतना ही बड़ा आकार ले लेता है. चींटी के शरीर में चींटी जितना आत्मा है और हाथी के शरीर में हाथी जितना. इस प्रकार उसमें संकोच और विस्तार होते रहते हैं. प्रत्येक जीव अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है अर्थात् वह कार्य करने में स्वतन्त्र है
और तदनुसार फल भोगता है. कार्य और फलभोग का स्वाभाविक नियम है. उस पर किसी अतीन्द्रिय शक्ति का नियंत्रण नहीं है. उदाहरण के रूप में यदि कोई आंखों पर पट्टी बांध कर कुएं की ओर बढ़ेगा तो उसमें गिर जाएगा. उसे गिराने वाली कोई उच्च सत्ता नहीं है, वह स्वयं अपने आपको गिराता है. साथ ही यह भी निश्चित है कि कार्य करने पर फल अवश्य भोगना होगा. यह कार्य-कारण का स्वाभाविक नियम है. भूल न करने पर यदि हम भोजन करते हैं तो अजीर्ण हो जाता है. पेट दुखने लगता है. इस अजीर्ण और उदरशूल के लिए किसी बाह्य सत्ता को नियामक मानने की आवश्यकता नहीं है. उसके लिये हम स्वयं उत्तरदायी हैं. सांख्य और वेदांतदर्शन में भी पुरुष अथवा ब्रह्म को चित् स्वरूप माना गया है. किन्तु वहां चेतना का अर्थ शुद्ध चैतन्य है अर्थात् उसमें विषय का भान नहीं रहता. यह भान प्रकृति या माया के कारण होता है. मुक्त अवस्था में वह नहीं रहता. किन्तु जैनदर्शन में ज्ञान और दर्शन अर्थात् निराकार और साकार दोनों प्रकार की चेतना जीव का स्वाभाविक गुण है. इसी को उपयोग कहते हैं. जो जीव का लक्षण माना गया है. अर्थात् बाह्य जगत् को सामान्य तथा विशेष दोनों रूपों में जानना जीव का स्वभाव है और वह मुक्त अवस्था में भी बना रहता है. इसी तथ्य के कारण इन परम्पराओं में कैवल्य शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न हो गया है. सांख्यदर्शन में कैवल्य का अर्थ है प्रकृति के सम्पर्क से रहित शुद्ध चेतना. जनदर्शन में उसका अर्थ है सर्वज्ञता अर्थात् बाह्य तथा आभ्यन्तर समस्त जगत् की अनुभूति. (२) पुद्गलास्तिकाय-सांख्यदर्शन में जो स्थान प्रकृति का है वही जैनदर्शन में पुद्गल का है. जीव के संसार में भ्रमण और सुख दुःख भोग का सारा कार्य पुद्गल द्वारा संपादित होता है. किन्तु सांख्यदर्शन के समान यहां इसका विकास बुद्धि के रूप में नहीं होता. जैनदर्शन के अनुसार वह चेतना का गुण है और उसी के समान अनादि तथा अनन्त है. न्यायदर्शन में पृथ्वी आदि चार भूतों के परमाणु भी भिन्न-भिन्न प्रकार के माने गये हैं. जल के परमाणुओं में गंध नहीं होती, अग्नि के परमाणुओं में गंध और रस नहीं होते तथा वायु के परमाणुओं में केवल स्पर्श ही होता है, किन्तु जैनदर्शन पृथ्वी आदि के परमाणुओं में मौलिक भेद नहीं मानता. सभी में रूप, रस, गंध तथा स्पर्श चारों गुण
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