Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३६६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
(ग) आयुष्य-विभिन्न गतियों में अल्प या दीर्घ जीवन प्रदान करने वाला. (घ) गोत्र-उच्च या नीच कुल में उत्पन्न करने वाला. (२) प्रदेशबंध-प्रत्येक कर्म के प्रदेश अर्थात् परमाणु. (३) स्थितिबंध-प्रत्येक कर्म की आत्मा के साथ रहने और फल देने की काल मर्यादा. (४) अनुभागबंध-न्यूनाधिक फल देने की शक्ति. आध्यात्मिक विकास के साथ मुख्य सम्बन्ध मोहनीय का कर्म है. इसके दो भेद हैं. (१) दर्शन मोहनीय और (२) चारित्र मोहनीय. दर्शन मोहनीय का अर्थ है मिथ्यात्व या दृष्टि का विपरीत होना. चारित्र मोहनीय का अर्थ है क्रोध मान माया और लोभ आदि दुर्बलतायें जो हमारे चारित्र को पनपते नहीं देती. उत्कटता की दृष्टि से इसकी चार श्रेणियां हैं, जिन्हें लांघते हुए साधक विकास की उत्तरोत्तर उच्च अवस्थाओं को प्राप्त करता है. प्रथम श्रेणी अनंतानुबंधी है. जिसके मिथ्यात्व मोहनीय तथा इसका उदय रहता है वह श्रद्धा तथा चारित्र दोनों से गिरा हुआ होता है
और आध्यात्मिक विकास का अधिकारी नहीं है. दूसरी कोटि अप्रत्याख्यान की है. इसके उदय वाला सम्यग्दृष्टि तो हो सकता है किन्तु आंशिक या पूर्ण किसी भी रूप में व्रत ग्रहण नहीं कर सकता. तीसरी कोटि प्रत्याख्यानावरण है. इसका उदय होने पर पूर्ण या महाव्रतों का पालन नहीं हो सकता. चौथी कोटि संज्वलन है. इसके उदय वाला महाव्रत तो अंगीकार कर सकता है किन्तु सूक्ष्म दोष लगते रहते हैं. इसका नाश होने पर कैवल्य या आत्मा की शुद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है. संबर- इसका अर्थ है आस्रव अर्थात् कर्मबंध के कारणों को रोकना. मिथ्यात्व को रोकना अर्थात् सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में विश्वास करना सम्यदर्शन है. तत्वार्थ सूत्र में इसे तत्वार्थश्रद्धान के रूप में बताया गया है. इसका अर्थ है जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित ७ तत्त्व और ६ द्रव्यों में विश्वास. अविरतिरूप आस्रव को रोकने की २ कोटियां हैं. प्रथम कोटि श्रावक की है. वह अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का आंशिक रूप में पालन करता है. इसे देशविरति भी कहा जाता है. दूसरी कोटि सर्वविरति या मुनि की है. वह महाव्रतों का पूर्णतया पालन करता है. इनके पालन के लिए समिति, गुप्ति, परीषहजय, अनुप्रेक्षाएँ आदि अनेक बातों का प्रतिपादन किया गया है. आस्रव के अंतिम तीन द्वारों का निरोध इन्हीं में आ जाता है.
निर्जरा-निर्जरा शब्द का अर्थ है संचित कर्मों का नाश. इसके लिए १२ प्रकार के तप बताये गये हैं. उनमें से ६ बाह्य हैं और ६ आभ्यंतर. बाह्यतप का सम्बन्ध मुख्यतया शारीरिक अनुशासन से है और आभ्यंतर तप का मनोनिग्रह से. मोक्ष--इसका निरूपण पहले किया जा चुका है. १४ गुणस्थान-जैनधर्म में आध्यात्मिक उत्थान की भूमिकाओं को १४ गुणस्थानों में विभक्त किया गया है. प्रथम अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान अविकसित अवस्था को प्रकट करता है. द्वितीय से लेकर १२वें तक विकास की विविध अवस्थाओं को, तेरहवां और चौदहवां पूर्णतया विकसित अवस्था को. विकास या उच्चतर भूमिकाओं को प्राप्त करने के दो मार्ग हैं. उपशमश्रेणि अर्थात् विकारों को दबाते हुए आगे बढ़ना. वहां दोष संस्कार के रूप में विद्यमान रहते हैं और अवसर पाकर उभर जाते हैं. परिणाम स्वरूप साधक नीचे गिर जाता है. दूसरा मार्ग क्षपक श्रेणि है. इसमें साधक विकारों का नाश करता हुआ आगे बढ़ता है. उसके पतन की संभावना नहीं रहती. द्वितीय गुणस्थान पतनकाल में प्राप्त होता है. यह मिथ्यात्व प्राप्त करने से पहले की अवस्था है. उस समय संस्कार के रूप में सम्यग्दर्शन का क्षीण प्रभाव बना रहता है. तृतीय गुणस्थान डांवाडोल मन बाले मिश्रदृष्टि जीव का है. जहां कभी सम्यक्त्व की ओर झुकाव होता है और कभी मिथ्यात्व की ओर. योगदर्शन की दृष्टि से प्रथम गुणस्थान को क्षिप्त और मूढ़भूमिका कहा जा सकता है तथा तृतीय गुणस्थान को विक्षिप्त भूमिका चतुर्थ. गुणस्थान सम्यग्दृष्टि जीब का है, जो श्रद्धा ठीक होने पर भी व्रतों को अंगीकार नहीं कर पाता. पांचवां देशविरति श्रावक या गृहस्थ का
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