Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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इन्द्रचन्द्र शास्त्री : जैनदर्शन : ३६१
आग देख कर यह अनुमान कर सकते हैं कि वहां उष्णता होगी. इतना ही नहीं, आज रविवार है तो यह अनुमान किया जा सकता है कि दूसरे दिन सोमवार होगा. क्योंकि सोमवार रविवार का उत्तरचर है. इस प्रकार हेतु के पूर्वचर सहचर आदि अनेक रूप हो सकते हैं. (५) भागम-आप्त अर्थात् विश्वसनीय पुरुष के वचन को आगम कहा जाता है. इसके दो भेद हैं. माता,पिता, गुरुजन आदि लौकिक आप्त हैं. इस सम्बन्ध में दर्शनकारों का मतभेद नहीं है. किन्तु अलौकिक आप्त के विषय में पर्याप्त मतभेद हैं. मीमांसादर्शन का कथन है कि शब्द में दोष तभी आता है जब उसके वक्ता में कोई दोष हो. वेद अनादि हैं, उनका कोई वक्ता नहीं है अतः वे दोषरहित हैं. न्याय तथा वेदान्त का कथन है कि वक्ता में दो गुण होने चाहिए. वह निर्दोष हो और साथ ही अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता हो. उनके मत में वेद ईश्वर के बनाये हुये हैं. उसमें कोई दोष नहीं है. साथ ही उसका ज्ञान परिपूर्ण है. जैनदर्शन ईश्वर को नहीं मानता. उसकी मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति साधना द्वारा आत्मा का पूर्ण विकास कर सकता है. उस अवस्था में वह वीतराग और सर्वज्ञ हो जाता है. आगम उसकी वाणी है, अतः प्रमाण है. जैन परम्परा की मान्यता है कि सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी तीर्थकर उपदेश देते हैं. उनकी ग्रंथ के रूप में रचना गणवरों अर्थात् मुख्य शिष्यों द्वारा की जाती है. उनके पश्चात् ज्ञानसम्पन्न अन्य मुनियों द्वारा रचे गये ग्रंथ भी आगमों में सम्मिलित कर लिये गये. श्वेताम्बर मतानुसार यह क्रम भगवान् महावीर के पश्चात् १००० वर्ष अर्थात् चौथी ईस्वी तक चलता रहा. वे अपने आगमों को बारह अग, बारह उपांग, छह मूल, छह छेद तथा दस प्रकीर्णकों में विभक्त करते हैं. इनमें से दृष्टिवाद का लोप हो गया. शेष ४५ आगम विद्यमान हैं. दिगम्बरों का मत है कि अंग उपांगादि सभी आगम लुप्त हो गये. वे षट्खंडागम और कषायप्राभृत को मूल आगम के रूप में मानते हैं. ये ग्रंथ महावीर के ४०० वर्ष पश्चात् रचे गये. इनके अतिरिक्त कुंदकंद, उमास्वामी, नेमिचंद सिद्धान्तचक्रवर्ती आदि आचार्यों की रचना को भी आगमों के समान प्रमाण माना जाता है. जैनदर्शन में ज्ञान के जो भेद किये गये हैं, उन्हीं को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है. और यह बताया गया है कि ज्ञान वस्तु के समान अपने आप को भी ग्रहण करता है. अर्थात् एक ज्ञान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती.
सात नय व्यक्ति अपने विचारों को प्रकट करते समय निजी मान्यताओं को सामने रखता है. एक ही स्त्री को एक व्यक्ति माता कहता है, दूसरा बहिन, तीसरा पुत्री और चौथा पत्नी. इसी प्रकार विभिन्न परिस्थितियों में भी एक ही व्यक्ति को भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट किया जाता है. एक ही व्यक्ति परिवार की गणना करते समय राम या कृष्ण के रूप में कहा जाता है. जातियों की गणना के समय ब्राह्मण या क्षत्रिय, व्यवसाय की गणना के समय अध्यापक या व्यापारी. इस प्रकार अनेक अभिव्यक्ति की दृष्टियां हैं. उन सब को नय कहा जाता है. जैनदर्शन में उनका स्थूल विभाजन ७ नयों के रूप में किया गया है. इनमें मुख्य दृष्टि विस्तार से संक्षेप की ओर है अर्थात् एक ही शब्द किस प्रकार विस्तृत अर्थ का प्रतिपादन होने पर भी उत्तरोत्तर संकुचित होता चला जाता है यह प्रकट किया गया है. नैगमनय-इसकी व्युत्पत्ति की जाती है 'नक गमो नैगमः' अर्थात् जहां अनेक प्रकार की दृष्ट्टियां हों. यह नय वास्तविकता के साथ उपचार को भी ग्रहण कर लेता है. उदाहरण के रूप में हम तांगेवाले को तांगा कहकर पुकारने लगते हैं. क्रोधी को आग तथा वीर पुरुष को शेर कहने लगते हैं. इस उपचार का आधार कहीं गुण होता है, कहीं सादृश्य और कहीं किसी प्रकार का संबंध. जैसे तांगे और तांगे के मालिक में स्व-स्वामिभाव संबंध है. इस नय का क्षेत्र अधिक विस्तृत है. संग्रहनय—इस का अर्थ है सामान्यग्राही दृष्टि अर्थात् अधिकाधिक वस्तुओं को सम्मिलित करने की भावना. इसके दो भेद हैं परसंग्रह और अपरसंग्रह. परसंग्रह में सभी पदार्थ आ जाते हैं. इसके द्योतक हैं सत्, ज्ञेय, आदि शब्द. अपर
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