Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीसुरेश मुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न अनेकान्तवाद
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जैन तत्व-ज्ञान का मूलाधारः-मानव-जीवन का सर्वतोमुखी उन्नयन एवं विकास करने के लिए श्रमण भगवान् महावीर की अहिंसा त्रिवेणी के रूप में प्रवाहित हुई थी. पहली जीव-दयारूपी अहिंसा-जिसके द्वारा स्व-पर के क्लेश तथा मनस्ताप को शान्त करने के लिए, जीवन के कण-कण में दया, करुणा, मैत्री, उदारता तथा आत्मोपमता का निर्मल झरना बहने लगता है. दूसरी, अनेकान्त रूपी बौद्धिक अहिंसा-जिसके द्वारा विचारों का वैषम्य, मालिन्य एवं कालुष्य धुलकर पारस्परिक विचारसंघर्ष तथा शुष्कवाद-विवाद का नामशेष हो जाता है और अन्तर्मन में पारस्परिक सौहार्द तथा शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का प्रकाश चमकने लगता है. तीसरी, तपस्यारूपी आत्मिक अहिंसा-जिसके द्वारा पूर्व-सञ्चित कर्म-मल का शोधन-परिशोधन करके आत्मा को मांजा जाता है, पूर्णतः शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल तथा साफ किया जाता है. उपर्युक्त विचार-पृष्ठभूमि में अनेकान्तवाद जैन-संस्कृति का तत्त्व-ज्ञान-निरूपण का मूलाधार है. जैन-संस्कृति में जो भी बात कही गयी है, वह अनेकान्तात्मक विचार एवं स्याद्वाद की भाषा में तोलकर ही कही गयी है ! इसी दृष्टिबिन्दु से संस्कृति के क्षेत्र में जैन-संस्कृति का दूसरा नाम 'अनेकान्त-संस्कृति' भी है. अनेकान्त का स्वरूपः--जैन-संस्कृति का मन्तव्य है कि प्रत्येक वस्तु के अनन्त पक्ष हैं. उन पक्षों को जैनदर्शन की भाषा में धर्म कहते हैं. इस दृष्टि से संसार की प्रत्येक वस्तु अनन्त-धर्मा है :
“अनन्तधर्मात्मकं वस्तु"-स्याद्वादमंजरी अनेकान्त में 'अनेक' और 'अन्त' ये दो शब्द हैं. 'अनेक' का अर्थ अधिक-बहुत और 'अन्त' का अर्थ धर्म अथवा दृष्टि है. किसी भी पदार्थ को अनेक दृष्टियों से देखना, किसी भी वस्तु-तत्त्व का भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से पर्यालोचन करना 'अनेकान्त' है. एक ही पदार्थ में भिन्न-भिन्न वास्तविक धर्मों का सापेक्ष रूप से स्वीकार करने का नाम "अनेकान्त' है. जैन-संस्कृति में एक ही दृष्टि-बिन्दु से पदार्थ के पर्यालोचन करने की पद्धति को एकांगी, अधूरा एवं अप्रामाणिक माना गया है, और एक ही वस्तु के विषय में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से कथन करने की विचार-शैली को पूर्ण तथा प्रामाणिक स्वीकार किया गया है. इस सापेक्ष विचारपद्धति का नाम ही वस्तुतः अनेकान्तवाद है. अपेक्षावाद, कथचिद्वाद, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद ये सब शब्द प्रायः एक ही अर्थ के वाचक हैं. अनन्त-धर्मात्मक वस्तु को यदि कोई एक ही धर्म में सीमित करना चाहे, किसी एक धर्म के द्वारा होने वाले ज्ञान को ही वस्तु का ज्ञान समझ बैठे, तो इससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप बुद्धि-गत नहीं हो सकता. कोई भी कथन अथवा विचार निरपेक्ष स्थिति में सत्यात्मक नहीं हो सकता. सत्य होने के लिए उसे अपने से अन्य विचार-पक्ष की अपेक्षा रखनी ही पड़ती है. साधारण ज्ञान, वस्तु के कुछ धर्मों-पहलुओं तक ही सीमित रहता है. केवल ज्ञान की स्थिति में ज्ञान के परिपूर्ण होने पर ही वस्तु के अनन्त धर्मों का ज्ञान होना संभव है. दूसरे शब्दों में, केवलज्ञान ही वस्तु स्वरूप को समग्र रूप में साक्षात् कर सकता है. इस पूर्ण ज्ञान को ही जैन-संस्कृति में प्रमाण माना गया है ! इसके अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार का ज्ञान अपूर्ण एवं सापेक्ष है. सापेक्ष स्थिति में ही वह सत्य हो सकता है, निरपेक्ष स्थिति में नहीं. हाथी को खंभे जैसा बतलाने वाला अन्धा व्यक्ति अपने दृष्टि-बिंदु से सच्चा है, परन्तु हाथी को रस्से-जैसा कहने वाले दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा से सच्चा नहीं हो सकता. हाथी का समग्र ज्ञान करने के लिए, समूचे हाथी का ज्ञान कराने वाली सभी दृष्टियों की अपेक्षा रहती है. इसी अपेक्षादृष्टि के कारण 'अनेकान्तवाद' का नाम अपेक्षावाद और स्याद्वाद
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