Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जाते थे.
डा० जगदीशचन्द्र : महावीर और उनके सिद्धान्त : ३१६ से खड़े रहते. कोई उन्हें कठोर वचन कहता तो मौन भाव से सहन करते. भोजन-पान में उन्हें आसक्ति नहीं रह गई थी, अपने लिये तैयार न किया हुआ, रूखा-सूखा भोजन खाकर ही वे काम चला लेते थे. कई दिन तक वे उपवासे रहते. बीमार पड़ने पर चिकित्सा न कराते. कभी कोई ऐसा काम न करते जिससे किसी को कष्ट पहुँचे. महावीर की तपश्चर्या और सहिष्णुता महान् भी जिसे देखकर बड़े-बड़े साधु-मुनियों के आसन हो अपने दीर्घकालीन तपस्वी जीवन में महावीर ने दूर-दूर तक यात्रा की. बिहार में घूमें पूर्वीप उत्तरप्रदेश के बनारस, साकेत, श्रावस्ती और कौशांबी आदि नगरों को उन्होंने अपने पाद - विहारों से पवित्र किया. लेकिन सबसे अधिक कष्ट उन्हें पश्चिमी बंगाल के लाढ देश में सहन करना पड़ा. इस देश में अनार्य जातियां बसती थीं और वे श्रमणों के आचारविचार को हेय समझती थीं. लेकिन महावीर यातनाओं से जरा भी न घबराये और अपने उद्देश्य पर अटल रहे परिश्रम का फल मीठा होता है. आखिर एक दिन जंभियग्राम में बालुका नदी के किनारे ध्यान-मुद्रा में अवस्थित महावीर ने बोध प्राप्त किया- उनके ज्ञान चक्षु खुल गये. केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद महावीर की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई. जन-समूह उनके दर्शन के लिये उमड़ पड़ा. कोई उनका उपदेश सुनने कोई कुरान वार्ता पूछने, कोई शंकानिवारण करने और कोई कौतूहल वृत्ति शांत करने के लिए आया. वैदिक दर्शन के प्रकाण्ड पंडित अर्थ निर्णय के लिये उनके समीप उपस्थित हुए. महावीर की विद्वत्ता और सर्वतोमुखी प्रतिभा से चकित होकर उन्होंने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया. आगे चलकर ये ही शिष्य गणधर पद से विभूषित किये गये.
गण और संघ के आदर्श पर महावीर ने अपने अनुयायियों को चार संघों में विभाजित किया था - साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका संघ के संगठन को दृढ़ बनाने के लिये चारों के चार नेता चुने गये जिससे संघ सुसंगठित रूप से आगे बढ़ता रहा.
निर्ग्रन्थ श्रमण, मठों या उपाश्रयों में रहते और सैकडों की संख्या में एक साथ विहार करते. वर्षा ऋतु में चार महीने वे एक स्थान पर ठहरते, बाकी आठ महीने जन-पद विहार करते. विहार करते समय उन्हें देश-देश की भाषाओं का ज्ञान लोकरिवाजों का ज्ञान तथा जन साधारण के मनोविज्ञान का परिचय आवश्यक था.
महावीर ने अहिंसा पर सबसे अधिक जोर दिया. इस समय खेती-बारी में उन्नति हो जाने से पशु-हिंसा के स्थान पर अहिंसा की उपयोगिता स्वीकार की जाने लगी थी. महावीर का कथन था कि सब जीव सुख-शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं, इसलिए हमें किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए. अपने विकारों पर विजय प्राप्त करने, इन्द्रियों का दमन करने और अपनी प्रवृत्तियों को संकुचित करने को ही वे वास्तविक अहिंसा मानते थे. इसलिए उन्होंने अपने भिक्षुओं को बोलनेचालने, उठने-बैठने, सोने और खाने पीने में सतत जागरूक रहने का उपदेश दिया है.
महावीर की मान्यता थी कि यदि सोने-चांदी के असंख्य पर्वत भी खड़े हो जायें तो भी मनुष्य की तृष्णा शान्त नहीं होती इसलिए मनुष्य को अपना परिग्रह कम करना चाहिए. उनके अनुसार सच्चा त्यागी वही हो सकता है जो सुन्दर और प्रिय भोगों को पाकर भी उनकी ओर से पीठ फेर लेता है, उन्हें धता बता देता है.
महावीर ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता नहीं मानते. उनके अनुसार आत्म-विकास की सर्वोच्च अवस्था ही ईश्वरावस्था है. महावीर जाति-पांति और छुआछूत के सख्त विरोधी थे. मनुष्य मात्र की समानता पर वे जोर देते थे. उन्होंने बार-बार अपने शिष्यों को संबोधन करके कहा था— हे शिष्यो ! सच्चा जैन अथवा सच्चा ब्राह्मण वही है जिसने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त की है, जो पांचों इन्द्रियों पर निग्रह रखता है, जो मिथ्या भाषण नहीं करता और जो सब प्राणियों के हित में रत रहता है. वास्तव में कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है. जन्म से नहीं. महावीर के निर्ग्रन्थ धर्म को कोई भी पाल सकता था और उन्होंने स्वयं म्लेच्छ, चोर, डाकू, मछुए, और वेश्याओं आदि को अपने धर्म में दीक्षित किया था.
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