Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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कन्हैयालाल लोढा दर्शन और विज्ञान २३२
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रूपान्तर हैं' वैज्ञानिकों ने अब प्रकाश और ताप की मात्रा को भी नाप लिया है. उनका कहना है कि प्रकाश विद्युत् चुम्बकीय तत्व है और एक वर्ग मील क्षेत्र पर एक मिनिट में सूर्य से गिरने वाले प्रकाश की मात्रा का तौल ढाई तोला है. तथा तीन हजार टन पत्थर के कोयले जलाने से उत्पन्न ताप का वजन लगभग एक माशा के बराबर होता है.
जैन शास्त्रों में इय्य का लक्षण बताते हुए कहा- 'सद् द्रव्यलक्षणम्. उत्पादव्ययश्रव्ययुक्तं सत् (तत्त्वार्थ सूत्र अ० ५ सूत्र २६-३०) अर्थात् द्रव्य सत् है और सत् उसे कहते हैं जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुण युक्त हो. अर्थात् जैनदर्शन यह मानता है कि वस्तु अपने अस्तित्व रूप में नित्य रहती है, उसका नाश कभी भी नहीं होता. उत्पत्ति और विनाश तो उसकी पर्यायें मात्र हैं. जैसे स्वर्ण के मुकुट को तोड़कर कुंडल बना देने पर भी स्वर्णत्व यथावत् बना रहता है. यह स्वर्णत्व ध्रौव्य है और मुकुट के आकार का नाश और कुंडल के आकार का निर्माण इसकी व्यय और उत्पाद पर्यायें अर्थात् रूपान्तर मात्र हैं. इसी प्रकार सब द्रव्य ध्रुव हैं, न तो शून्य से किसी द्रव्य का निर्माण ही संभव हैं और न कोई द्रव्य अपना अस्तित्व खोकर शून्य बनता है. इसी मत का समर्थन करते हुए वैज्ञानिक लेवाईजर (Lavoiser) लिखते हैं.Nothing can be created in every process there is just as much substance (quality of matters) present before and after the process has taken place. There is only change of modification of matter (from law of indestructibility of matter as defind by Lavioser) अर्थात् किसी भी क्रिया से कुछ भी नवीन उत्पत्ति नहीं की जा सकती और प्रत्येक क्रिया के पूर्व और पश्चात् की पदार्थ की मात्रा में कोई अंतर नहीं पड़ता है. क्रिया से केवल पदार्थ का रूप परिवर्तित होता है.
डेमोक्राइटस का अभिमत है— विज्ञान के 'शक्ति स्थिति' (censervation of Energy ), वस्तु अविनाशित्व (law of Indestructibility ) ' शक्ति की परिवर्तनशीलता' (Transformation of Energy ) आदि सिद्धांत स्पष्ट प्रमाणित करते हैं कि नाशवान पदार्थ में भी ध्रुवत्व है. Nothing can never become some thing and some thing can become nothing अर्थात् कुछ नहीं से किसी पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती और कोई पदार्थ अभाव को प्राप्त नहीं हो सकता.
जैन दर्शन के परमाणुसिद्धांत की सचाई से प्रभावित होकर Dr. G. S. Mallinathan लिखते हैं- A Student of Science, if reads the Jain treatment of matter will be surprised to find many corresponding ideas.
अर्थात् एक विज्ञान का विद्यार्थी जब जैनदर्शन का परमाणुसिद्धांत पढ़ता है तो विज्ञान और जैनदर्शन में आश्चर्यजनक समता पाता है. रिसर्चस्कालर पं० माधवाचार्य का कथन है कि आधुनिक विज्ञान के सर्वप्रथम जन्मदाता भगवान् महावीर थे.
लेश्या
जैन दर्शन 'मन' को आत्मा से भिन्न अनात्म, जड़, और एक विशेष प्रकार के पुद्गलों (मनोवर्गणा के द्रव्यों) से निर्मित पदार्थ मानता है तथा उसमें उन गुणों को स्वीकार करता है जो पुद्गल में विद्यमान हैं अर्थात् मन को भी पुद्गल की भांति वर्ण, आकार व शक्ति युक्त मानता है. आगमों में मन के विभिन्न स्तरों का वर्गीकरण लेश्याओं क रूप में किया गया है. लेश्याएँ ६ प्रकार की होती है: (१) कृष्ण लेश्या (२) नील लेश्या (३) कापोत लेखा (४) पीत (तेजस्) लेवा (५) पद्म लेश्या (६) शुक्ल लेश्या. वे कमशः (१) अशुभतम भाव (२) अशुभतरभाव (२) अशुभभाव (४)
शुभभाव (५) शुभतरभाव (६) शुभतम भाव की अभिव्यंजक हैं.
अत्यन्त महत्त्व की बात तो यह है कि लेश्याओं का नामकरण काले, नीले, कबूतरी, पीले, हल्का गुलाबी, शुभ्र आदि
१. नवनीत ५५ सितम्बर, पृष्ठ २८
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