Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३३६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
रंगों के आधार का किया गया है. यह इस बात का स्पष्ट द्योतक है कि किस प्रकार के विचारों से किस प्रकार की मनोवर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं. अतीव हिंसा, क्रोध, क्रूरता आदि अशुभतम भाव कृष्णलेश्या के अन्तर्गत होते हैं. इन भावों से कृष्ण वर्ण की मनोवर्गणाएँ पैदा होती हैं और ये लेश्यावाले व्यक्ति के चारों ओर बादलों के समान फैल जाती हैं. इसी प्रकार अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर, शुभतम भावों से नीले, कबूतरी, पीले, हल्का गुलाबी, शुभ्र, वर्ण के मनोवर्गणाओं के मेघों के समुदाय में न केवल वर्ण ही होता है अपितु आकार एवं शक्ति भी होती है. विचारों में रंग, आकार, शक्ति होती है, इस तथ्य को पेरिस के प्रसिद्ध डाक्टर वेरडुक ने यंत्रों की सहायता से प्रत्यक्ष दिखाया है. उन्होंने विचारों से आकाश में जो चित्र बनते हैं उन चित्रों के एक विशेष यंत्र से फोटो भी लिए हैं. यथाःएक लड़की अपने पाले हुए पक्षी की मृत्यु पर विलाप कर रही थी. उस समय के विचारों की फोटो ली गई तो मृत पक्षी का फोटो पिंजड़े सहित प्लेट पर आ गया . एक स्त्री अपने शिशु के शोक में तल्लीन बैठी थी. उसके विचारों का फोटो लिया गया तो मृत बच्चे का चित्र प्लेट पर उतर आया. आदि आदिश्री वेरडुक का कथन है कि जैसा संकल्प होता है उसका वैसा ही आकार होता है और उसी के अनुसार उस आकृति का रंग भी होता है. आकाश में, संकल्प द्वारा नाना रूप बनते हैं. इन रूपों की बाह्य रेखा की स्पष्टता-अस्पष्टता संकल्पों की तीव्रता के तारतम्य पर निर्भर है. रंग विचारों का अनुसरण करते हैं; यथा-प्रेम एवं भक्ति युक्त विचार गुलाबी रंग, तर्क-वितर्क पीले रंग, स्वार्थ-परता हरे रंग तथा क्रोध लाल मिश्रित काले रंग के आकारों को पैदा करते हैं. अच्छे विचारों के रंग बहुत सुन्दर और प्रकाशमान होते हैं, उनसे रेडियम के समान ही सदैव तेज निकला करता है. (देखिये—'संकल्पसिद्धि" विचारों के रूप और रंग.) जैन शास्त्रों में एक अन्य लेश्या का भी वर्णन मिलता है. उसे तेजोलेश्या कहा गया है. आगमों में इसकी प्राप्तिहेत तपश्चर्या की एक विशेष विधि बतलाई गई है. तेजोलेश्या विद्युतीय शक्ति के समान गुण-धर्मवाली होती है. इसके' दो रूप हैं. एक उष्ण तेजोलेश्या, दूसरी शीतल तेजोलेश्या. अणु या विद्युत् शक्ति के समान यह भी दो प्रकार से प्रयोग में लाई जाती है. इसका एक प्रयोग संहारात्मक है और दूसरा प्रयोग संरक्षणात्मक. प्रथम प्रयोग में प्रयोक्ता अपने मनोजगत से उष्णता स्वभाव वाली उष्ण तेजोलेश्या की विद्युतीय शक्ति का प्रक्षेपण करता है जो विस्तार को प्राप्त हो अंग, बंग, मगध, मलय, मालव आदि सोलह देशों का संहार (भस्म) करने में समर्थ होती है. दूसरे प्रयोग में प्रयोक्ता शीतल स्वभाववाली शीतल तेजोलेश्या की शक्ति का प्रयोग कर प्रक्षेपित उष्ण तेजोलेश्या के दाहक स्वभाव को शून्यवत् कर देता है.
उष्ण तेजोलेश्या का प्रयोग गोशालक ने भगवान् महावीर पर किया था. फलत: भ० महावीर के दो शिष्य भस्म हो गये और स्वयं सर्वसमर्थ भ० महावीर को भी अतिसार रोग हो गया जिससे भ. महावीर छः मास तक पीड़ित रहे. इस शक्ति के प्रयोग के विषय में श्रमण कालोदायी भ० महावीर से पूछता है और भगवान् सविस्तार उत्तर देते हैं: अहो कालोदायि ! क्रुद्ध अनगार से तेजो लेश्या निकलकर दूर गई हुई दूर गिरती है, पास गई हुई पास में गिरती है. वह तेजोलेश्या जहाँ गिरती है, वहाँ उसके अचित्त पुद्गल प्रकाश करते यावत् तपते हैं. उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि तेजोलेश्या एक विद्युतीय शक्ति-सी है. इस विषय में विज्ञान की वर्तमान उपलब्धियों से आश्चर्य-जनक समानता मिलती है :
१. भगवती-शतक १५ २. सोलसराहं जणवयाणं तंजहा-अंगाणं, वंगाणं; मगहाणं, मलगाणं, मालवगाणं, अच्छाण', वच्छा, कोच्छाण, पाहाण, लाढाण वज्जीण', मोलीणं, कासीण', कोसलाण', अवाहाणं, समुत्तराण', घाताए, बहार उच्छादणट्ठाए भासीकरणयाय.
-भगवती, शतक १५ ३. कुद्धस्स अणगाररस तेउलेस्सा निसढासमाणी दूरं गंता दूरं निपतइ, देसं गंता देतं निपतई, तहि तहिं जं ते अचित्ता वि पोग्गला
अोभातति जाव पभासंति. भगवाती शतक ७८०१०
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