Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३४२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय होता रहता है. अत: द्रव्यदृष्टि से पदार्थ नित्य है किन्तु विगम और उत्पाद दृष्टि से अर्थात् पर्यायदृष्टि से प्रतिक्षण बदलने वाला परिणामी है. सुवर्ण के कंकण को तोड़कर उसका कटिसूत्र बनावा डाला. हुआ क्या ? आकृति बदल गई परन्तु उसका सुवर्णत्व नहीं बदला. वह तो ज्यों का त्यों हैं. जैसा पहले था वैसा अब भी. सिद्धान्त यह रहा कि-द्रव्यं नित्यं, आकृतिः पुनरनित्या'. प्रमाण और नय-पदार्थ को समझने की ज्ञानपद्धति दो प्रकार की है स्वार्थ और परार्थ. मति आदि रूप ज्ञानपद्धति स्वार्थरूप है और शब्दरूप पद्धति परार्थरूप है. परार्थ-पद्धति के दो भेद हैं, प्रमाण रूप और नय रूप. अनन्त धर्मात्मक वस्तु-तत्त्व के समस्त धर्मों को अथवा उसके अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण है और उसके किसी एक धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान नय है. जैसे 'अयं घटः' यह ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि इसमें घट के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का एवं लघुगुरु छोटे-बड़े आदि आकाररूप धर्मों का ज्ञान हो जाता है. 'रूपवान् घटः' यह ज्ञान नय है, क्योंकि इसमें घट के अनन्तधर्मों में से केवल एक धर्म अर्थात् रूप का ही प्रतिभास है, अन्य रस, गन्ध आदि धर्मों का नहीं. 'नयवाद' जैनदर्शन की व्यापक विचारपद्धति है. जैनदर्शन हर बात को 'नय' पद्धति से सोचता है, उसका विश्लेषण करता है. जैनदर्शन में ऐसा कोई भी सूत्र या अर्थ नहीं जो नयशून्य हो–'नत्थि नयेहि विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणमये किंचि.' नय को प्रमाण माना जाय या अप्रमाण ? यह जैन दार्शनिकों के सामने एक गम्भीर प्रश्न था. यदि नय प्रमाण है तो वह प्रमाण से भिन्न क्यों है ? और यदि अप्रमाण है तो यह मिथ्याज्ञान होगा. फिर मिथ्याज्ञान का मूल्य ही क्या है ? इस का समाधान जनदार्शनिकों ने बड़े अच्छे ढंग से किया है. वे कहते हैं-नय न तो प्रमाण है और न अप्रमाण. वह प्रमाण का एक अंश है. जैसे समुद्र का एक बिन्दु समुद्र नहीं कहा जा सकता परन्तु समुद्र का अंश तो कहा जा सकता है. प्रमाण का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु है और नय का विषय उस वस्तु का एक अंश. यहां यह प्रश्न भी हो सकता है कि यदि नय अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी एक ही अंश को ग्रहण करता है तो वह मिथ्याज्ञान ही रहेगा. फिर उससे पदार्थ का यथार्थ ज्ञान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान आचार्यों ने असंदिग्ध भाषा में कर दिया है. वे कहते हैंयद्यपि नय अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक ही धर्म को ग्रहण करता है परन्तु इतने मात्र से उसे मिथ्याज्ञान नहीं कह सकते. एक अंश का ज्ञान यदि वस्तु के अन्य अंश का निषेध करता हो तो उसे मिथ्या कह सकते हैं किन्तु जो अंशज्ञान अपने से अतिरिक्त अंश का निषेध न कर केवल अपने दृष्टिकोण को ही बताता है उसे मिथ्याज्ञान नहीं कहा जा सकता है. जो नय अपने स्वीकृत धर्म का प्रतिपादन करते हुए अपने से भिन्न धर्म का निषेध करता है वह निस्संदेह नय न होकर नयाभास या दुर्नय होता है. निरपेक्ष नय दुर्नय है और सापेक्ष नय सुनय है. सप्तभंगी का रूप :-जैसा कि हम कह आये हैं, पदार्थज्ञान के लिए प्रमाण और नय ये दो पद्धतियाँ हैं. इन दोनों पद्धतियों का समावेश 'सप्तभंगी' में हो जाता है. सप्तभंगी का अर्थ है सात वाक्यों का समूह अर्थात् एक प्रश्न का सात ढंग से उत्तर. किसी प्रश्न का उत्तर या तो 'हाँ' में दिया जाता है या 'नहीं' में. हाँ और नहीं के औचित्य को लेकर ही 'सप्तभंगी' वाद की रचना हुई है. किसी भी पदार्थ के लिए अपेक्षा के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाता है. वे इस प्रकार हैं
(१) कथंचित् घट है. (२) कथंचित् घट नहीं है. (३) कथंचित् है और नहीं है. (४) कथंचित् घट अवक्तव्य है. (५) कथंचित् घट है और अवक्तव्य है. (६) कथंचित् घट नहीं है और अवक्तव्य है.
(७) कथंचित् घट है, नहीं है और अवक्तव्य है. प्रश्न के वश से एक ही वस्तु में अविरोध रूप से विधि-प्रतिषेध की कल्पना ही 'सप्तभंगी' है. किसी भी पदार्थ के विषय
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