Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३४६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय महत्त्व है. अनेकान्त, विधि, विचार आदि अनेक अर्थों में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग होता है किन्तु यहाँ पर केवल अनेकान्त के अर्थ में ही 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया है. अनेकान्त अर्थात् अनेक धर्म स्वरूप. प्रश्न-'स्यात्' शब्द से ही जब अनेक धर्म-स्वरूप घट आदि पदार्थों का बोध हो जाता है, तब अस्तित्व आदि शब्दों की क्या आवश्यकता है ? उत्तर- स्यात्' शब्द से अनेकान्त रूप अर्थ का सामान्य रूप से बोध होने पर भी विशेष रूप से अर्थ का बोध कराने के लिए वाक्य में अस्तित्व आदि अन्य शब्द का प्रयोग करना भी आवश्यक है. अत: विवक्षित अर्थ का निश्चयपूर्वक ज्ञान करने के लिए जैसे 'एव' शब्द लगाना अनिवार्य है वैसे ही सर्वथा एकान्त पक्ष की व्यावृत्तिपूर्वक अनेकान्त रूप अर्थ का ज्ञान करने के लिए 'स्यात्' शब्द का जोड़ना अनिवार्य है. प्रश्न--जो घट आदि पदार्थ हैं, वे सभी अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अस्तित्व रूप ही हैं, न कि अन्य पदार्थ से संबन्धित. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कारण से अस्ति रूप हैं. क्योंकि अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की निवृत्ति तो अप्रसंग होने से अपने आप ही हो जाती है. ऐसी अवस्था में 'स्यात्' शब्द जोड़ना निरर्थक है. उत्तर—किसी दृष्टिकोण से यह सत्य हो सकता है परन्तु जिस पदार्थ का विवेचन किया जा रहा है उसमें रही हुई अनेकान्तात्मक स्थिति किस शब्द से प्रगट होगी? यह जानने के लिए और बतलाने के लिए एवं वस्तुस्थिति को ठीक समझने के लिए 'स्यात्' शब्द जोड़ना जरूरी है. इसके सिवाय प्रत्येक द्रव्य में द्रव्यत्व अभेदवृत्ति से रहता है, तथा पर्यायें भी अभेद के उपचार से द्रव्य के ही आश्रित होती हैं. इस प्रकार द्रव्य अनेकान्त रूप वाला होता है. यह स्थिति 'स्यात्' शब्द से प्रतीत होती है. अतः सकलादेश सप्तभंगी और विकलादेश सप्तभंगी में 'स्यात्' शब्द जोड़ना अनिवार्य है. क्रम और योगपद्यः-सकलादेश प्रमाणात्मक वाक्यप्रणाली है और विकलादेश नयात्मक वाक्यप्रणाली. सकलादेश प्रणाली घटादि रूप पदार्थ को सामूहिक रूप से पदार्थ में स्थित सभी धर्मों को एक रूप से काल आदि आठ द्वारों द्वारा अभेद वृत्ति से और अभेद रूप उपचार से विषय करती है. जबकि विकलादेश प्रणाली काल आदि आठों द्वारों द्वारा भेदवृत्ति से और भेद रूप उपचार से पदार्थ में स्थित अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म को ही अपेक्षा द्वारा वर्णन करती है. प्रश्न---क्रम और योगपद्य से आपका क्या तात्पर्य है? उत्तर–प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व आदि अनेक धर्म हैं, उनका वर्णन देश काल आदि की अपेक्षा से जब करना हो तब केवल अस्तित्व आदि किसी एक शब्द के द्वारा उस पदार्थ में स्थित अनेक धर्मों का एक साथ वर्णन नहीं किया जा सकता है और न एक शब्द द्वारा ही उन सब धर्मों का वर्णन हो सकता है. अत: निश्चित पूर्वापरभाव प्रणाली द्वारा अथवा अनुक्रम शैली द्वारा उस पदार्थ का वर्णन करना क्रमपद्धति है. क्रमपद्धति से विपरीत यौगपद्य है. पदार्थ में स्थित अस्तित्वादि अनेक धर्मों की काल आदि कारणों से जब एकरूपता बतलाई जाती हो, तथा केवल एक शब्द के आधार से धर्मविशेष का कथन करके उसी में शेष धर्मों की स्थिति समझ ली जाती हो, इस प्रकार का प्रतिपादन एक समय में भी सम्भव है. इस तरह का जो वस्तु-स्वरूप का निरूपण है वही योगपद्य है. काल आदि अाठ द्वारः-१ काल, २ आत्मरूप ३ अर्थ ४ सम्बन्ध, ५ उपकार ६ गुणिदेश, संसर्ग और ८ शब्द, इन आठ द्वारों से वस्तु के किसी एक धर्म से शेष धर्मों का अभेद माना जाता है. (१) "अस्ति एव घट:- यहाँ पर जिस काल में घट द्रव्य में अस्तित्व धर्म रहता है, उसी काल में शेष अनन्त धर्म भी घट में रहे हुए होते हैं. इस प्रकार एक काल-अवस्थिति की दृष्टि से शेष अनन्त धमों को अस्तित्व धर्म से अभिन्न मानना काल से अभेदवृत्ति है. (२) जैसे घट में 'अस्तित्व' नामक गुण उसका स्वरूप बनकर रहता है, वैसे ही अन्य अनेक गुण-जैसे कालापन आदि भी घट के स्वरूप बनकर रहते हैं. यही 'एक स्वरूपत्व' नामक आत्मरूप दूसरा द्वार है जिसके द्वारा अभेदवृत्ति नामक ज्ञानप्रणाली उत्पन्न होती है.
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