Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रूपेन्द्रकुमार पगारिया, न्यायतीर्थ : सप्तभंगी : ३४३ में सात प्रकार के प्रश्न हो सकते हैं. इसीलिए सप्तभंगी कही गई है. सात प्रकार के प्रश्नों का कारण है सात प्रकार की जिज्ञासा और सात प्रकार की जिज्ञासा का कारण है सात प्रकार के संशय, तथा सात प्रकार के संशयों का कारण है उसके विषय रूप वस्तु के धर्मों का सात प्रकार से होना. उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि सप्तभंगी के सात 'भंग' केवल शाब्दिक कल्पना ही नहीं किन्तु वस्तु के धर्मविशेष पर आश्रित हैं. इसलिए सप्तभंगी का विचार करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उसके प्रत्येक भंग का स्वरूप वस्तु के धर्म के साथ संबद्ध हो. यदि किसी भी पदार्थ का कोई भी धर्म दिखलाया जाना जरूरी हो तो उसे इस प्रकार दिखलाया जाना चाहिये जिससे कि उन धर्मों का स्थान उस वस्तु में से विलुप्त न हो जाए. जैसे कि आप घट में नित्यत्व का स्वरूप बतलाना चाहते हैं तो आपको घट के नित्यत्व का बोध करवाने के लिए ऐसे उपयुक्त शब्द का प्रयोग करना चाहिये जो घट का नित्यत्व तो बताता ही हो किन्तु उसके अनित्यत्व आदि अन्य धर्मों का विरोध न करता हो. यह कार्य सप्तभंगी द्वारा ही हो सकता है. शंका-भंग सात ही नहीं किन्तु अधिक भी हो सकते हैं जैसे कि प्रथम और तृतीय विकल्पों का एक साथ उल्लेख करने से नया भंग बन सकता है. इसी तरह सातों भंगों में से एक दूसरे के साथ दो-दो या तीन-तीन भंग के जोड़ने से और भी नवीन भंग बन सकते हैं ? उत्तर–प्रथम और तृतीय धर्म को मिलाने से उत्पन्न नवीन भंग के अनुसार नवीन वाच्य पदार्थ की प्रतीति लोक में नहीं पाई जाती. इसी प्रकार अन्य भंग के लिए भी समझना चाहिये. ऐसी अवस्था में सात से अधिक भंगों की उत्पत्ति का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता. इस प्रकार एक धर्म के आधार से सात ही भंग बनते हैं, किन्तु पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है, अतः अनन्त सप्तभंगियाँ भी बन सकती हैं, किन्तु भंगों की मर्यादा सात ही है. शंका-माना कि सप्तभंग से अधिक भंग नहीं हो सकते किन्तु उनसे कम तो हो सकते हैं ? क्योंकि जो घट स्वरूप से सत् है वही अन्य पटादि रूप से असत् भी है, इसलिए 'स्यादस्त्येव' तथा 'स्यान्नास्त्येव' ये दो धर्म नहीं घटित हो सकते. इन दोनों का एक दूसरे में समावेश हो जाता है. अतः इन दो भंगों में से किसी एक ही भंग को मान लो. दूसरे की आवश्यकता नहीं. समाधान-यह कथन अयोग्य है क्योंकि सत्त्व और असत्त्व दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं. जो सत्त्व है वह असत्त्व नहीं हो सकता और जो असत्त्व है वह सत्त्व नहीं हो सकता. ऐसी स्थिति में दोनों को अलग-अलग ही मानना चाहिये. अगर इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं माना जायगा तो स्वरूप से सत्त्व ग्रहण के सदृश पर रूप से भी सत्त्व मानने का प्रसंग आजायगा. और पर रूप से असत्त्व की तरह स्वरूप से भी भसत्त्वग्रहण का प्रसंग आजायगा. साथ ही बौद्ध लोग जो त्रिरूप हेतु तथा नैयायिक पंचरूप हेतु मानते हैं वे भी सत्त्व और असत्त्व की अपेक्षा से ही मानते हैं. अर्थात्-हेतु का सपक्ष में पाया जाना यह सत्त्व की अपेक्षा से और विपक्ष में न पाया जाना यह असत्त्व की अपेक्षा से माना है. उन्होंने भी सत्त्व और असत्त्व को भिन्न-भिन्न ही माना है. यदि ऐसा न मानकर सत्त्व और असत्त्व में से किसी एक को ही मानते तो त्रिरूप व पंचरूप हेतु की हानि होती अत: उनके सिद्धान्त से भी सत्त्व का भेद ही सिद्ध होता है. शंका-सत्त्व और असत्त्व को भले ही भिन्न-भिन्न मान लें किन्तु सत्त्वासत्त्व स्वरूप तीसरे भंग को अलग मानने की क्या आवश्यकता? क्यों कि जैसे घट और पट इन दोनों को अलग-अलग कहने पर या एक साथ उभय रूप से घट-पट कहने पर भी घट-पट का ही ज्ञान होता है, भिन्न ज्ञान नहीं होता है, अत: 'स्यादस्ति और स्याद् नास्ति' मानने के बाद तीसरा भंग अस्ति नास्ति मानना व्यर्थ है. समाधान–प्रत्येक की अपेक्षा उभयरूप समुदाय का भेद अनुभवसिद्ध है. जैसे भिन्न घ और ट की अपेक्षा से समुदाय रूप 'घट' इस पद को सब वादियों ने भिन्न माना है. यदि भिन्न नहीं माना जाय तो 'घ' इतना कहने मात्र से ही 'घट' का बोध हो जाना चाहिये. जिस प्रकार प्रत्येक पुष्प की अपेक्षा से माला कथंचित् भिन्न है उसी प्रकार क्रमापित 'उभयरूप-सत्त्व असत्त्व', 'सत्त्व' और 'असत्व' की अपेक्षा से कथंचित् भिन्न ही हैं.
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