Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रिषभदास रांका : जैन साधना : ३०७
सेवा साधक के लिये सेवावृत्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है. क्योंकि चित्तशुद्धि के साथ-साथ गुणों की उपासना ही उसकी आत्मशक्ति को बढ़ाती है. विवेकी साधक अपनी आवश्यकताएं घटाकर दूसरों से कम से कम सेवा लेता है और अधिक से अधिक दूसरों के लिये उपयोगी बनता है. जीवन में एक दूसरे की सेवा और सहयोग आवश्यक होता है पर साधक सदा यह ध्यान रखता है कि वह किसी पर बोझरूप न बने और दूसरों से जो सेवा ले उसे चुकाने का प्रयास करे. जैनसाहित्य में सेवा के लिये 'वैयावृत्य' शब्द का प्रयोग किया गया है. उसके दस प्रकार बताये गये हैं, जिसका अर्थ यही है कि जहाँ जैसी सेवा की जरूरत हो वह की जाय.
स्वाध्याय साधना में स्वाध्याय का भी अत्यन्त महत्त्व है. अपने ध्येय की जाग्रति और उस पथ में आगे बढ़ने के लिये अनुभवियों के अनुभवयुक्त वचन या ग्रंथों का स्वाध्याय अत्यन्त उपयोगी होता है. यदि साधनामार्ग में कहीं कुछ शंका हो तो अपने से अधिक ज्ञानी और जानकार से शंकानिवारण कर लेना चाहिये. पढ़े हुये अनुभवों तथा पाठों का चिंतन तथा शुद्धतापूर्वक उच्चारण और आये हुये अनुभवों का या धर्म का उपदेश आदि बातें ज्ञानप्राप्ति में निःशंक बनाने, उदात्त तथा परिपक्व बनाने में सहायक होती हैं. इसलिये स्वाध्याय का अत्यन्त महत्त्व है. स्वाध्याय एक प्रकार की प्राचीनकाल में हुये महापुरुषों की सत्संगति है. स्वाध्याय करते समय यदि यह दृष्टि रहे तो हम बहुत लाभान्वित हो सकते हैं. व्युत्सर्ग ममता, अहंकार, रागद्वेष तथा क्रोधादि कषायों का त्याग व्युत्सर्ग है. व्युत्सर्ग के दो प्रकार बताये गये हैं-बाह्य और आभ्यन्तर. घर, खेत, धन, संपत्ति, परिवार आदि की आसक्ति का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है और राग, द्वेष, क्रोध, अहंकार आदि आन्तरिक दुर्गुणों का त्याग आभ्यन्तर व्युत्सर्ग है. चित्त शुद्धि के लिये इन सब बातों का त्याग आवश्यक होता है. साधक प्रातःकाल तथा संध्या समय में, एकान्त में, निरुपाधिक होकर ममतात्याग का चिंतन करे और उसे त्यागने का प्रयास करता रहे तो साधना-पथ में आगे बढ़ता है.. इस प्रकार साधक अपनी तैयारी कर लेता है तब वह ध्यान की ओर आगे बढ़ता है. पतंजलि की साधना में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, यह साधनाक्रम बताया है. प्रकारान्तर से वैसा ही जैन साधना में भी है. आसन शरीर को अप्रमत्त बनाते हैं और प्राणायाम चित्त को स्थिर बनाने में उपयोगी होता है. प्रत्याहार फैली हुई वृत्तियों को एकाग्र बनाता है तो धारणा संकल्प को धारण करने की शक्ति देती है. इतनी तैयारी हो जाने पर साधक ध्यान की साधना कर चित्त को स्थिर दृढ़ एकाग्र और निर्मल बनाता है जिससे समाधि प्राप्त होती है. ध्यान जैन साधना में पूर्व बताई पार्श्वभूमि तैयार होने पर ध्यान की साधना करने को कहा है. कर्मक्षय के लिए ध्यान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधना है . ध्यान चित्त को एकाग्र बनाता है. चित्त का स्वभाव है—वह खाली नहीं रहता. किसी न किसी विषय का चिंतन करता ही रहता है. ध्यान के दो प्रकार जैन साधना में बताये गये हैं-एक अशुभ और दूसरा शुभ. चित्त एकाग्र और स्थिर करने से उसकी शक्ति में वृद्धि होती है. चित्त की बढ़ी हुई शक्ति से मनुष्य इच्छित कार्य कर सकता है. यदि इस शक्ति का उपयोग वह अशुभ के लिए करना चाहे तो वैसा भी कर सकता है और उसका उपयोग शुभ के लिए भी कर सकता है. इसलिए जैन साधना ने ध्यान के प्रकार बताकर इस विषय का स्पष्टीकरण किया है. आर्त और रौद्रध्यान ये अशुभ ध्यान हैं. धर्म तथा शुक्ल ध्यान ये शुभध्यान माने गये हैं.
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