Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१६२ मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
आलोच्य कवि की रचनाओं को देखते हुए स्पष्ट ज्ञात होता है कि उनका अध्ययन विशाल था. उन्होंने सन्तसाहित्य का गम्भीर अध्ययन किया था. सन्तों के परम्परागत विचारों को पचाया था, जिनमें कबीर भी एक हैं.
कब मठपति कब सिन्यासी जोई, कब रामानन्दी कबीर पंथी होई । कब मंथन कब रामती, कब पांडियो कब दादूपंथी ||
उपरोक्त पद आचार्य श्रीआसकरण जी ने अपनी जीव परिभ्रमण रचना में लिखा है. उन्होंने बताया है कि आत्मा अनादि है और वह ब्रह्मांड में परिभ्रमण करते हुए कभी संन्यासी, कभी मठाधिपति, कभी कबीरपंथी व कभी दादूपंथी के रूप में अवतरित होती है, किन्तु कर्मकांड के पाखंड में फंसकर ही मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकी. कबीर ने भी इसीलिए स्वयं मुसलमान होते हुए भी मुसलमानों को तथा हिन्दुओं को भी फटकारा है
कांकर पाथर जोरि के मसजिद लइ बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहिरा भया खुदाय | पोथी पदि २ जग मुश्रा पंडित भया न कोय, ढाई अक्षर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय । मात्र को सावधान होने
मुनि श्री आसकरणजी ने मानव का संदेश देते हुए बार-बार कहा है कि होनहार को कोई नहीं टाल सकता. रावण जैसे बड़े-बड़े राजा हुए किन्तु काल का ग्रास बन गये:
लंका नगरी रो साहिबो रावण, कह्या बंधव इक जो। काल बेताल जिरणानेई ले गयो, लंक भई छिन में राखो । प्राण मोलत जब काल री पहुंचे,
तरे किंचित जोर न चाले ।
काल की इसी प्रबलता को देखकर व जन्म-मरण की चक्की में मनुष्यों को पिसते देखकर कबीर का हृदय रो उठा था.
चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय ।
दो पाटों के बीच में साबत बचा न कोय ॥
संत तुलसी ने भी यही बात कही है :
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जीव माया से प्रेरित होकर धर्मविमुख हो जाता है और कभी उच्च तथा कभी नीच कर्म करता हुआ चौरासी लाख योनियों में भटकता फिरता है:
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धर्म बिना जीव भग्यो अपारो,
लाख चौरासी के कयहिक ऊंचो कि कबहिक दुर्बल कबहिक
मारो | भी,
मीचो ।
प्राकर चारि लक्ष चौरासी, जोनि भ्रमत यह जीव अविनाशी, फिरत सदा माया करि प्रेरा, काल करम सुभाउ गुन हेरा ।
जैन परम्परा त्याग - वैराग्यमूलक परम्परा है. इस परम्परा के अनुसार साहित्य एवं ज्ञान का प्रधान लक्ष्य आत्महितसाधना है. प्रत्येक जैन सन्त कवि ने त्याग वैराग्य के सुधास्रावी स्वरों को ही उद्गीर्ण किया है. आचार्य श्रीआसकरणजी
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