Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीपालमशाह खान,
एम० ए०, रिसर्च स्कालर, हिन्दी विभाग, महाराणा भूपाल कालेज, उदयपुर.
लोंकागच्छ की साहित्य-सेवा
भारतीय साहित्य परम्परा के निर्माण में जैनों का योग-दान निरन्तर एवं अक्षुण्ण रहा है. संस्कृत से लेकर प्राकृत, अपभ्रश तथा अन्यान्य देश्य-भाषाओं तक जैनों की सजन-सलिला का प्रवाह कभी नहीं सूखा. वह अबाध गति से प्रवहमान रहा. जैन-साहित्य जितना प्रचुर है उतना ही प्राचीन भी, जितना परिमार्जित है उतना ही विषय-वैविध्यपूर्ण भी
और जितना प्रौढ़ है उतना ही विविध-शैली-सम्पन्न भी. यदि एक इकाई के रूप में कभी समस्त भारतीय साहित्य का इतिहास लिखा जायेगा तो इसका आधार यही जैन-साहित्य बनेगा, इसमें संशय नहीं. आचार्य शुक्ल जैसे पूर्वाग्रही आलोचक भले ही इस साहित्य को 'धार्मिक नोटिस मात्र' कह कर उपेक्षित कर दें किन्तु अद्यावधि शोधित तथ्यों के आलोक में हमें यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भारतीय चितना की मूल्यवान धारा अपने समस्त ज्ञान-वैभव के साथ जैन साहित्य में उतरी है. कहने की शायद ही आवश्यकता रह जाती है कि जितना गौरव शुद्ध साहित्य का है उतना ही सम्प्रदायमूलक साहित्य-राशि का. जैन-साधक सदैव देश-काल एवं तज्जन्य परिस्थितियों के प्रति जागरूक रहे हैं. उनकी ऐतिहासिक बुद्धि कभी सुषुप्त नहीं रही. वे आध्यात्मिक परम्परा के अनुगामी एवं आत्मलक्ष्यी संस्कृति में विश्वस्त रहने के बावजूद भी लौकिक चेतना से विरक्त नहीं थे. क्योंकि उनका अध्यात्मवाद वैयक्तिक होकर भी जन-कल्याण की भावना से अनुप्राणित था. यही कारण है कि सम्प्रदायमूलक साहित्य का सृजन करते हुए भी वे अपनी रचनाओं में देश-काल से सम्बन्धित ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक टिप्पण दे गये हैं जिनका यदि वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन किया जाय तो भारतीय इतिहास के कई तिमिराच्छन्न पक्ष आलोकित हो उठे. आचार्य नरचन्द्र सूरिकृत 'हम्मीर-मद-मर्दन महाकाव्य' और भावकलश रचित हम्मीरायण अथवा हमीर देव प्रभृति जैन-रचनाएं आज भी राजपूत इतिहास के कई निष्कर्षों को चुनौती दे रही हैं. विविध तीर्थ-कल्प, प्रभावक-चरित्र, प्रबन्धकोष, विज्ञप्ति-पत्र, प्राचीन तीर्थमालाएं, जैन गच्छों और परम्पराओं की पट्टावलियां, शिला-लेख आदि ऐसी उपलब्धियां हैं जिनसे तत्कालीन भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक धाराओं का प्रामाणिक विवेचन प्राप्त होता है मौलिक साहित्य-सृष्टि के साथ-साथ जन-साधकों ने विभिन्न मूल्यवान कृतियों पर नितांत ही सारगर्भित और पाण्डित्यपूर्ण टीकाएं रचकर साहित्य-परम्परा की अविस्मरणीय सेवा ही नहीं अपितु संरक्षा भी की है. जैन मुनियों की रचनाओं को पिष्टपेषण से पूर्ण माना गया है. इसमें कोई संदेह नहीं कि औपदेशिक वृत्ति के कारण जैन रचनाओं में विषयान्तर से परम्परागत बातों का वर्णन-विवरण रहता है. पर सम्पूर्ण जैन-साहित्य पिष्ट-पेषण मात्र नहीं है और जो है वह भी न केवल लोक-पक्ष बल्कि भाषा-विकास की दृष्टि से भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है. जैनों ने भारतीय चितना की आदर्श संस्थापक नैतिक एवं धार्मिक मान्यताओं को जन-भाषा-समन्वित शैली में ढाल कर राष्ट्र के आध्यात्मिक स्तर को बड़ा बल दिया है और हमारी धर्म-मूलक थाती की रक्षा की है. उन्होंने इस प्रकार साहित्य परम्परा को संस्कृत के कूप-जल से निकाल कर भाषा के बहते नीर में अवगाहन कराया है—उसे अभिव्यक्ति के नये पथ पर अग्रसर किया है. विभिन्न जन-गच्छों ने साहित्य की जो सेवा की है उसका पूरा-पूरा लेखा-जोखा लेने का न यहाँ अवसर ही है और न
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