Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
२२० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
聯洋聯號漆器茶茶茶茶器茶茶洗茶茶等茶茶
प्रेक्षाजीवंवरसुरतरु धर्मधीरं वरेण्यं । श्रीमत्पूज्यवरगणिपदेस्थापितंसाधु सारं ।।८।। श्रीश्रीपूज्यवरगणियुतैरत्रदेशेषुशीघ्र । कृत्वाशूकं सकलसुखदं श्रावकाणांशमीना ।। पागंतव्यं सुगुणनगरे दर्शनेहश्चसंघो ।
यस्मात्तस्मात् सफल सुबसोमं क्षुकार्योधुनात्र ॥६॥ .." वंदे के पुनः । श्रीवरऋषिना शिष्य पुनः । श्रुत क० सिद्धान्तरूप प्रधान सरोवरई रमवानइ विषइ राजहंस समान, पुनः शिक्षा० क. सिक्षा ग्रहण अासेवरण रूपना देण हार, साधु श्रीसिंह स्थविर, सिव क. मोक्षसुखना देणहार, सुन्दरं क. सुशोभित, साधुनइ बंदइ करी संयुक्तनइ हूं बांदू॥६॥ हिबइ श्री याचार्य बरसिंहना काव्य वषाणइ छइ. अभिनवः क. नवा, सदा० क. सदा काल अथवा सोभनिक प्राचार्य ऋषि श्रीवरसिंहनइ हुबांदु. पुनः किं विशिष्टः श्री श्राचार्य, सारा० क. तत्व अतत्वना विचारणहार, पुनः किं विशिष्टं गणिः क० आचार्यनी आचार सूत्रादिक संपदाए करी संयुक्त, वंदे क० तेहनइ हुबांदु. वादि क० वादि रूप दुष्ट हस्तीनइ अंकुस समान ॥॥ वांदे क० हु वांदु. चारु क. मनोहर श्रीवरसिंह गणिनइ पुनः वादि कः वादी रूप दुष्ट हस्ती जीपवानइ विषद सिंह समान, पुनः शान्त्या. क. उपशमना घर, पुनः शुभकः क० भले प्रधान गणइं करीनइ सहित, साधुक साधु रुप कमल विकसावानइ विषइं चंद्रमा, सासांन, प्रे० क० बुधे करी वृहस्पति, पुनः बरकः प्रधान कल्पवृक्ष, धर्मक० क० धर्मनइ विषइ अक्षोभ्य ब. क. प्रधान, श्रीम० क. श्रीपूज्य वरसिंह ऋषि प्रधान आचार्य पदइ थापउ साधु मौहे जे सार प्राचार्य ऋषि वरसिंहनई हुबांदु. श्रीश्री क. श्रीपूज्येवर० क. प्रधान प्राचार्य वरसिंह सहित, स्त्र० क. कपदेशन विषइ शीघ्र उतावला क्ष०क० दयाकरीनइ–सुखना देवणहारी,-शृणनगरनई विषई, दर्श०क० दर्शननी वांछा करइ छइ संघ. तस्मा० तिणई कारणइ सफल मनोरथ शीघ्र करउ ॥ श्रीरस्तु. संवत १६४१ वर्षे वैशाख वदि अमावश्यायां. सोमवासरे बिभीतक ग्रामे लिखितं मुनि मोटाकेन ॥ छ । लिखावतं ऋ० ५ जयमलजी ॥ १०. लघु बरसिंघजी-सादड़ी निवासी ओसवाल, पिता झाझण, माता सुन्दर बाई, जन्म सं० १५८६, दीक्षा सोलहवें वर्ष सं० १६०६ सिरोही, पदस्थापन सं० १६२७ अहमदपुर, साठवें वर्ष में जसवंतजी को सं० १६४६ सोजत में दीक्षा दी, १२ वर्ष तक गुरु-शिष्य साथ में विचरे. सं० १६६२ में माही पूर्णिमा के दिन अनशन द्वारा खंभाल में देहोत्सर्ग. स्व० मोहनलाल भाई देसाई ने अपने 'जैनगूर्जर कविओ' भाग ३ पृष्ठ २२०६ पर इनका स्वर्ग स्थान उसमापुर, सोजत या दिल्ली बताया है. ११. जसवंतजी-राजस्थान प्रान्तान्तर्गत शुद्धदंतीपुर-सोजत-के निवासी ओसवाल लोंकड़ गोत्रीय, पिता परबत, माता सहोदरा, जन्म सं० १६३४, दीक्षा सं० १६४६ माह सुदि १३ सोजत, सं० १६८८ मगसिर पूर्णिमा को रूपसिंह को अहमदपुर नगर में स्वपद पर स्थापित किया. अभी तक गुजराती लुकागच्छ में जितने भी संयमी महापुरुष हुए हैं उन सब में जसवंतजी अधिक प्रभावशाली व्यक्ति जान पड़ते हैं. इन्होंने राजस्थान गुजरात और सौराष्ट्र में विहार कर जिनशासन की महती प्रभावना की. इनका शिष्यपरिवार विशाल और विद्वान् ग्रंथकार था. संघर्षमूलक युग में, जहां चारों ओर धर्म के नाम पर अमानवीय तत्त्वों का पोषण होता हो, वहां एक संप्रदाय के आचार्य का इतना व्यापक प्रभाव इस बात का परिचायक है कि वह संयम की साधना के साथ पाण्डित्य-गुणसमन्वित व्यक्तित्वसंपन्न विज्ञ थे. ज्ञान और चारित्र की समन्विति ही संतको जन-मानस में प्रतिष्ठित करती है.
A
ATTRACM AMRAAT
RAINE VEDIA
Immam Jo
CONTIMURNAL
lbull
WALA
AN
____Jain Educause
S
For Private areMOMSeroily
www.jainelibrary.org