Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२७२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
"एन एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन में चार्ल्स एस ब्रेडन जैनधर्म सम्बन्धी परिच्छेद में लिखते है "कि जैनधर्म स्पष्ट ही बौद्धधर्म से कुछ पुराना है और उसका प्रारम्भ छठी शताब्दी से बहुत पहले का माना जा सकता है .. जैनधर्म में हिंदू धर्म के कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को कुछ परिवर्तित रूप में अपनाया गया है. विश्व के किसी भी अन्य धर्म की अपेक्षा जैनधर्म में 'अहिंसा' या किसी को कष्ट न देने के सिद्धान्त को सर्वाधिक प्रमुखता दी गई है. जैनधर्मानुयायियों के मंदिर बहुत ही आकर्षक एवं विश्व के अन्य मतानुयायियों के पूजास्थलों की अपेक्षा भव्य होते हैं. वास्तुकला की दृष्टि से भी उनका अलग महत्त्व है. कोई भी अपरिचित व्यक्ति उन्हें प्रथम बार देखकर सहसा स्तंभित रह जाता है." विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी पाक्षिक पत्रिका 'लाइफ' में समय-समय पर जो लेखमालाएं प्रकाशित होती हैं, बाद में अधिकांश का प्रकाशन संदर्भ-ग्रन्थ के रूप में भी होता है. १६५६ में इस पत्रिकाके संपादकों की ओर में 'वर्ल्डस् ग्रेट रिलीजियन्स २ नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था. वैसे तो इस ग्रंथ में प्रायः सभी धर्मों के सम्बन्ध में लम्बे-लम्बे सचित्र लेख दिये गए हैं तथा विश्व के अनेक धर्मो का परिचय अलग-अलग परिच्छेदों में हैं. कम संख्या वाले मतानुयायियों का परिचय एक प्रारम्भिक परिच्छेद में दिया गया है. इसी परिच्छेद में जैन, सिख और पारसी धर्मों के लिए भी एक-एक पैराग्राफ दिया गया है.
अन्य प्रसिद्ध लेखकों के समान, 'लाइफ' के संपादकों के मत से भी जैनधर्म का प्रारम्भ ईसापूर्व छठी शताब्दी में हिन्दूधर्म की बुराइयों के विरुद्ध एक आंदोलन के रूप में हुआ था एक शब्द में जैनधर्म का मुख्य सिद्धांत 'अहिंसा' है जिसे बहुधा जैन लोग इस सीमा तक मानते हैं कि पाश्चात्य वातावरण में पले लोगों को हास्यास्पद सा जान पड़ता है. ऐसी स्थिति में यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होना चाहिए कि जैन लोग गांधीजी को किस प्रकार अपने मत का अनुपायी मानने का दावा करते हैं.
'लाइफ' के मत से जैनत्व 'धर्म' की अपेक्षा 'नीति' अधिक है, भले ही जैनियों के अपने तीर्थंकर हों, विशाल मन्दिर हों तथा उनमें वे पूजन-अर्चन करते हों. आधुनिक युग में जैनधर्म एक नए रूप में विश्व के समक्ष आगे आ रहा है. विश्वबन्धुत्व तथा युद्ध की समाप्ति की पृष्ठभूमि में जैनधर्म का अपना अलग महत्त्व है तथा रहेगा.
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" दी न्यू शेफ - हरजोग एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजियस नालेज में श्री ज्योफ डब्ल्यू० गिलमोर ने जैनधर्म के संबन्ध में लिखा है कि जैनधर्म के संस्थापक पार्श्वनाथ थे जिन्होंने यद्यपि एक स्वतंत्र विचारधारा को जन्म दिया पर वह विचारधारा उनके बाद दो शताब्दी तक कार्यशील नहीं हो पाई. उनकी इस विचारधारा को आगे बढ़ाने का श्रेय महावीर को है जो उनके करीब २५० साल बाद हुए.
इसके बाद जैनधर्म एवं बौद्धधर्म की समानता बतलाते हुए लेखक ने मुख्यरूप से अहिंसा का उल्लेख किया है और यह ठीक ही लिखा है कि "दोनों धर्मों में अहिंसा मुख्य सिद्धांत होते हुए भी जैनधर्म इस अर्थ में अधिक महत्त्व रखता है कि अहिंसा के सिद्धान्त को जैन लोग जिस कट्टरता से मानते हैं और उसका व्यवहार में जितना प्रयोग करते हैं, उतना बौद्ध लोग नहीं. इसका प्रमाण केवल इस तथ्य से मिल जाता है कि जैन मुनि अहिंसा का पालन करने में इतने आगे बढ़े हुए हैं कि वे अपने मुंह पर हमेशा एक पट्टी बाँधे रहते हैं ताकि सांस लेने या बाहर निकालने में किसी जीव की हत्या न हो जाए. इसी प्रकार जब वे उठते-बैठते या सड़क पर चलते हैं तो एक छोटा सा झाडू साथ में लिए रहते हैं जिससे वे रास्ता साफ करते चलते हैं और इस प्रकार किसी संभावित हिंसा से बचे रहते हैं.
१. Encyclopedia of Religion; edited by vergilius Ferm (New york, Philosophical Library, 1945)
२. 'World's Great religions' by the editors of 'Life' International.
3. The New Schaff Herzog encyclopedia of religious Knowledge, edited by Samuel Macaulay Jackson (Baker Book, House Michigan, 1956,
४. लेखक का आशय रजोहरण से है, जो प्रायः ऊन का होता है. - सम्पादक