Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३०० : मुनि श्रहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
की रक्षा करता है, उसकी सराहना की जा सकती है, किन्तु यदि मोक्ष के स्थान पर दया को कर्म का प्रेरक माना जाय तो ऐसा कर्म आध्यात्मिक दृष्टि से अनुचित होगा. दया से प्रेरित होकर प्राण की रक्षा, अहिंसा के अतिरिक्त अन्य साधनों से भी की जा सकती है. ऐसी अवस्था में दया को मोक्ष के लिए उपयोगी नहीं माना जा सकता, क्योंकि साधु न तो धन रख सकता है और न किसी अन्य व्यक्ति को धन दे सकता है. यदि धन के स्थान पर व्याध को समझा-बुझा कर उसके मन को परिवर्तित कर दिया जाय तो यह कर्म आत्मा की रक्षा से प्रेरित होने के कारण मोक्ष धर्म समझा जायेगा, यद्यपि इसमें प्राणी की रक्षा स्वतः ही हो जायेगी. इससे यह प्रतीत होता है कि केवल अध्यात्म और और अनुभवातीत दृष्टि से ही आत्मा की रक्षा को जीव की रक्षा की अपेक्षा उत्कृष्ट माना जा सकता है.
यहाँ पर स्मरण रखना चाहिये कि जहां तक साधु आचार का सम्बन्ध है, कुछ सीमा तक प्राण-रक्षा की ओर तटस्थता को धर्म स्वीकार किया जा सकता है. क्योंकि साधु मुमुक्षु होता है, उसे शुभ अशुभ से ऊपर उठना पड़ता है और अहिंसा का पालन करते समय जीवों के प्रति तनिक मात्र राग-द्वेष से भी मुक्त रहना पड़ता है शुभ तथा अशुभ कर्मों को जैन दर्शन में बन्ध माना गया है. जैनदर्शन के विख्यात विद्वान् श्री ए० एन० उपाध्ये ने लिखा है "शुभ तथा अशुभ कर्मों की लोहे तथा सोने की हथकड़ियों से उपमा दी जा सकती है. मोक्ष प्राप्त करने के लिये इन दोनों से मुक्त होना चाहिये. यह आवश्यक है कि आसक्ति को त्याग दिया जाय और व्यक्ति अपनी विशुद्ध आत्मा में ही स्थित होजाय, अन्यथासमस्त तपश्चर्या और धार्मिक कर्म निरर्थक हैं.' किन्तु तेरापंथी इस तटस्थता पर आवश्यकता से अधिक बल देते हैं और प्राणरक्षा को केवल व्यावहारिक दया स्वीकार करते हैं. इस कर्त्तव्य को केवल व्यावहारिक कर्तव्य कह कर और उसका उत्तरदायित्व गृहस्थों पर छोड़ कर तेरापंथी आध्यात्मिक तटस्थता पर आवश्यकता से अधिक बल देते हैं. वे इस बात को भूल जाते हैं कि प्राणरक्षा करते समय भी एक साधु तटस्थ रह सकता है और इस प्रकार प्राणरक्षा भी आत्मा की रक्षा की भाँति आध्यात्मिक दया हो सकती हैं. विशेष कर साधु के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह प्राणियों की रक्षा करते समय, उनके प्रति राग अथवा श्रासक्ति रखे. आध्यात्मिक आदर्श पर चलते हुए भी और प्राणों की रक्षा करते हुए घृणा, द्वेष, भय, आदि से निवृत्ति की प्राप्ति की जा सकती है.
ऐसा आदर्श हमें भगवद्गीता की स्थितप्रज्ञ की धारणा में मिलता है. भगवद्गीता के अनुसार स्थित
यही है, जो दुखों का अनुभव करते समय उद्वेगरहित है, जो सुख का अनुभव करते समय अभिमान एवं आत्मप्रशंसा से रहित है और जिसके भय क्रोध आदि नष्ट हो गए हैं. एक साधु को भी दुख-सुख का अनुभव करना पड़ता है, क्योंकि ये अनुभव उसके पूर्व जन्म का फल होते हैं. किन्तु उसमें और गृहस्थ में अन्तर होता है कि गृहस्थ भावावेश से असन्तुलित अवस्था में होता है, जब कि साधु स्थितप्रज्ञ होने के कारण शांत होता है. वह न किसी व्यक्ति से प्रसन्न होता है न अप्रसन्न. शुभ अशुभ वस्तुओं के प्रति वह अनासक्त और तटस्थ रहता है. भगवद्गीता का यह आदर्श जैन साधु के आदर्श के सदृश है. कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दों में- 'अज्ञानी के लिये कर्म बन्ध का कारण बनता है, जब कि ज्ञानी आध्यात्मिक होने के कारण उस समय हल्का एवं सात्विक होता है, जब कि वह कर्म के फल को भोगता है. वह साधु जो जीवित प्राणियों की रक्षा करते समय आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भावशून्य होता है और जिसका दृष्टिकोण विश्वातीत होता है, कदापि कर्म से आसक्त नहीं हो सकता और न ही उसका कर्म बन्ध को उत्पन्न कर सकता है."
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स्थितप्रज्ञ की यह धारणा जैन धारणा के विपरीत नहीं है. कुन्दकुन्दाचार्य ने ज्ञानी की जो धारणा प्रस्तुत की है, वह स्थितप्रज्ञ की धारणा के सदृश है. कुन्दकुन्दाचार्य ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि ज्ञानी को अपनी आत्मा में ही स्थित रहना चाहिये और यह आत्मस्थिति ही उसे आनन्द देती है. इसी आत्मानुभूति के लिए ही अनासक्त रहना आवश्यक है. कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार में इस दृष्टिकोण की पुष्टि करते हुए स्पष्ट रूप से लिखा है- 'परमाणु बराबर तनिकमात्र आसक्ति भी आत्मानुभूति के लिए महान् आपत्ति का कारण है, यद्यपि किसी व्यक्ति ने सभी आगमों को कण्ठस्थ भी क्यों न कर लिया हो. व्यक्ति को अपनी आत्मा में निलीन हो कर आत्मस्थित रहना चाहिए, क्योंकि आत्मा ही ज्ञान का भण्डार है. इस प्रकार सन्तुष्ट रहना ही उत्कृष्ट एवं परम सुख है. भगवद्गीता के दूसरे
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