Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२८८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
दृष्टि के स्थान पर बाह्य दृष्टि को ही प्रधानता मिलती है. उस समय आत्मा को न देखकर उसका कलेवर ही देखा जाता है.
सम्यक्त्व जीवन का चिरंतन सत्य है. यह सत्य जब जीवन में संपूर्ण अभिव्यक्ति पाता है, तब व्यवहार और आदर्श की खाई पटती जाती है. सम्यक्त्वी के आचार-विचार में एक विशिष्ट प्रकार की समानता होती है. मानव मानव है. उसमें कमजोरियां भी हैं. परन्तु सम्यक्त्वी का जीवन उन कमजोरियों पर विजय पाने के लिए सतत संघर्षशील रहता है. मानवीय दुर्बलताओं के कारण आदर्शों को न निभा पाना अलग बात है और संकल्पपूर्वक अपने व्यक्तित्व का आदर्श तथा व्यवहार में विभाजन करना अलग बात है. सम्यक्त्वी जीवन को इस प्रकार विभाजित नहीं करता. इसीलिए वह साधना की चरमस्थिति तक पहुँच कर शाश्वत सिद्धि प्राप्त कर सकता है.
आत्म-साधना करने वाले ऋषि महर्षि आचार्य और धर्मगुरु सम्यक्त्व का यह पाठ चिरकाल से समाज को पढ़ा रहे हैं फिर भी समाज पर इसका कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा है. धर्मगुरु इस साधना के द्वारा समाज को परिवर्तित करने का प्रयत्न करते रहे हैं और उधर समाज में शोषण, उत्पीडन, तृष्णा और वासनाओं का वही दौर चालू है. इसके कारण का यदि विश्लेषण किया जाय तो प्रत्यक्ष हो जायगा कि इन सिद्धांतों को व्यवहार की भूमिका पर उतारने के स्वल्प प्रयत्न किये गये. जनसाधारण तक उन्हीं की भाषा में पहुँचाने की ओर ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया. व्यक्ति और उसके हितों की उपेक्षा करके कोई भी आदर्श अथवा सिद्धांत व्यावहारिकता की परिधि में अपना स्थान नहीं बना सकता. उसकी सीमाओं में प्रवेश पाने के लिए व्यावहारिकता का परिवेश धारण करना ही होगा.
यहाँ यह उल्लेख भी आवश्यक है कि देश, काल और वातावरण की ओर ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया है. प्रत्येक युग की अपनी मान्यताएँ होती हैं. उसकी उपेक्षा कर कोई भी सिद्धांत अपना क्षेत्र नहीं बना सकता. अतः युग के मार्ग को अस्वीकार करना उचित नहीं कहा जा सकता.
इस आलोक में यदि आज सम्यक्त्व की आराधना की जाय तो निश्चित ही विश्व समता की भूमिका प्राप्त कर सकेगा. सत्य अनन्त है. व्यक्ति सान्त है. परन्तु जब व्यक्ति, सीमाओं को, क्षुद्रताओं को पार करके ससीम से असीम बन जाता है, तब उसका सत्य भी अनन्त हो जाता है. अनंत में ही अनंत गुणों की अभिव्यक्ति होती है.
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