Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्रीमल्ल : आहेत अाराधना का मूलाधार सम्यग्दर्शन : २८३
समझने का दावा कर सकता है किन्तु वह व्यापक एवं अनेकांत दृष्टि के अभाव में उसके प्रति न्याय करने में समर्थ नहीं हो सकेगा. वर्तमान में वादों एवं मताग्रहों का जो भीषण कोलाहल एवं संघर्ष दिखाई पड़ रहा है उसका भी मूल कारण सत्य को सम्पूर्ण रूप में जानने का अभाव है. "मेरी स्थापना ही सत्य है" यह अहम् भावना ही वस्तुतः इन समस्त विग्रहों का मूल कारण है. अतः सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार आवश्यक है और वह तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपने एकान्त दृष्टिकोण को छोड़ कर अनेकांत दृष्टि का वरण करेगा. वर्तमान में सत्य को आवृत करने की प्रथा-सी चल पड़ी है. अनावृत सत्य सामाजिक अहित का कारण हो सकता है, इस तर्क के अवलम्बन से आवृत सत्य को अंगीकार करने का प्रायः उपदेश दिया जाता है. किन्तु इस यथार्थोन्मुख युग में यह प्रवंचना स्थायी नहीं हो सकती है. जो सत्य है, स्पष्ट है, उसको आवृत रूप में जानने, पहचानने में क्या प्रयोजन है ? अनावृत सत्य की आराधना ही सही सत्य-साधना है, वही प्रयोजनीय है. श्रमणसंस्कृति सम्यक्त्वमूलक है. सम्यक्त्व है तो ही श्रावक थावक है और श्रमण श्रमण है. सम्यक्त्व रहित श्रावक
और श्रमण का आत्मसाधना की दृष्टि से कोई मूल्य नहीं है. किसी भी साधक ने जब कभी भी आत्मा के शुद्ध एवं निर्मल स्वरूप को पाया है तो वह सम्यक्त्वमूलक सत्याचरण के द्वारा ही. श्रमण संस्कृति में जीव, जीवन और जगत् की प्रत्येक प्रक्रिया एवं प्रयोग को सम्यक्त्व की कसौटी पर ही कसकर परखा जाता है. जैन आगमों में यह कहा गया है कि जिसने जीवन में सम्यक्त्व नहीं पाया, उसने ज्ञान और चारित्र भी नहीं पाया. सम्यक्त्वहीन का ज्ञान अज्ञान है.' सम्यक्त्वहीन का चारित्र भी कुचारित्र है.२ सम्यक्त्व धर्म के प्रभाव से नीच-से-नीच मनुष्य भी देव हो जाता है और उसके अभाव में उच्च-से-उच्च भी अधम हो जाता है.' आज समता और साम्य की स्थापना के नारों का गगनभेदी उद्घोष प्रायः सुनाई पड़ता है. मनुष्य के स्वार्थ, वासना लिप्सा ने वैषम्य का साम्राज्य स्थापित किया है और मनुष्य-मनुष्य में अन्तर उत्पन्न कर दिया है उसके बीच एक गहरी खाई का निर्माण कर दिया है, भेद की दुर्भेद्य दीवार खड़ी कर दी है. इसी वैषम्य का निराकरण करने के लिए प्रायः समता अथवा साम्य का आयोजन किया जाता है. यह युग यांत्रिकयुग, वैज्ञानिकयुग एवं आर्थिकयुग के नाम से सम्बोधित किया जाता है. मानव के विधि-विधान भी इन्हीं के द्वारा परिचालित होते हैं. जिन भावनाओं एवं मनोविकारों की प्रेरणा से मनुष्य ने इतनी उत्क्रान्ति की है, उनकी इन विधि-विधानों एवं रचनाओं में प्रायः उपेक्षा की गई है. विज्ञान एवं अर्थशास्त्र के नियम एक निश्चित फार्मूले पर नियोजित हो सकते हैं किंतु भावप्रवण मानव को इन बंधनों में कैसे घेरा जा सकता है ? इसी भ्रममूलक दृष्टि ने इन वर्गसंघर्षों का नियोजन किया है. आज जिस साम्य व समता की बात बार-बार दोहराई जाती है उसमें भी ये कमजोरियां समाहित हैं और फिर इसके पीछे मानवहित की विशुद्ध भावना नहीं अपितु राजनैतिक षड्यंत्रों एवं छलछन्दों की धूल उड़ रही है. अत: सम्यक्त्व के विशुद्ध रूप का वरण ही इन सबका समाधान कर सकता है और अशान्ति में भटकने वाले विश्व को शान्ति प्रदान कर सकता है. श्रमण-साहित्य के अतिरिक्त वैदिक-साहित्य में भी सम्यग्दर्शन की महिमा कम नहीं है. वहाँ ऋत, सत्य, समत्व आदि शब्दों से इसी की ओर इंगित किया गया है. सम्यक् दर्शन शब्द भी प्रयुक्त हुआ है, परन्तु बहुत कम. श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन ! जीवन को शान्त और पवित्र बनाने के लिए समत्व प्राप्त करो. समत्व सब से बड़ा योग है.'
१. नादंसणिस्स नाणं. -उत्तराध्ययन अ० २८ गा०३. २. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं-उत्तराध्ययन अ० २८ गा० २६. ३. सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् , देवा देवं विदुर्भरमगूढांगारान्तरौजसम्. -आचार्यस मंतभद्र. ४. समत्वं योग उच्यते. --गीता