Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि कान्तिसागर : लोंकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २२१
आचार्य तेजसिंह ने परम्परानिर्वाहार्थ इनका संक्षिप्त परिचय अन्य आचार्यों के समान वृद्धों के मुख से सुनकर दिया है. इनके विषय में ३ और कृतियां भी प्राप्त हैं जिनमें विस्तृत विवरण उपलब्ध है. एक रचना तो इनकी दीक्षा के ३ वर्ष बाद ही जीवराज-शिष्य धर्मदास ने सं० १६५२ में 'जसवंत मुनि का रास' नामक रची, जिसका परिचय 'जन गूर्जर कविओ' भाग ३ पृष्ठ ८१६ पर दिया है. अन्य दो कृतियां, जो अद्यावधि अज्ञात थीं, इस प्रबंध में सर्वप्रथम उद्धृत की जा रही हैं. इनसे उनके जीवन की ऐतिहासिक घटनाओं पर अभिनव प्रकाश ही नहीं पड़ता अपितु भ्रामक बातों का परिमार्जन भी हो जाता है. प्रथम कृति में इनकी दीक्षा का भव्य वर्णन प्रस्तुत किया गया है. उत्साह के साथ संयम ग्रहण करने का निश्चय हो जाने पर गुरुवर्य श्रीवरसिंघजी को तथा अन्य प्रमुख श्रीसंघों को आमंत्रित किया जाता है और इस आध्यात्मिक समारोह में बीकानेर, जैसलमेर, कालू, निम्बाहेडा, अजमेर, बगड़ी, जयतारण, जोधपुर आदि नगरों का संघ श्रद्धा के साथ सम्मिलित होता है. पिता ने विवाह के समान प्रचुर व्यय कर सांसारिक बंधनों से जसवंत को मुक्त कर गुरु के श्रीचरणों में समपित किया.
दूसरी रचना है-'जसवंत चातुर्मास' जिसके प्रणेता हैं आचार्यश्री के शिष्य विद्या मुनि के शिष्य मुनि माधव. इनने सं० १६६१ कार्तिक कृष्णा ६ गुरुवार को खंभात में रचना की. प्रतिलिपिकार हैं कर्ता के शिष्य मुनि वीरजी. अतः यह रचना सभी दृष्टियों से विश्वस्त और प्रामाणिक है. ६४ पद्यों की इस कृति में आचार्यश्री के सिरोही, खंभात, पाटण, सविपुर, वटपद्र-बड़ौदा, अहमदपुर, राजनगर-अहमदाबाद, उसमापुर, जालौर, अजमेर, आगरा, बगड़ी, गुन्दवच, पीपाड,, दीव, गौरी (?) सुदामापुरी-पोरबन्दर, और मंगलपुर-मांगरोल आदि चातुर्मासों का वर्णन किया है. सूरत के बोहरा हापा, वीरजी, बुरहानपुर के सानी माणकदास, पोरबन्दर के सोमजी, मंगलपुर के मालजी और अहमदपुर के धर्मदास व जिणदास के नाम भी सम्मिलित हैं. प्रति किसी श्रद्धाशील गुरुभक्त के लिये ही लिखी गई है, चतुर्दिक सुन्दर सुशोभन. और पृष्ठि तो उत्तम ग्रंथ-चित्रकला की परिचायिका है. जसवंतजी को गुदवच का १४ वां चातुर्मास धार्मिक दृष्टि से विशेष लाभप्रद सिद्ध हुआ, वहीं पर पेथड-पुत्र रूपकुमार को आचार्यश्री की वाणी ने अपना बना लिया. सं० १६७५ मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी को दीक्षा अंगीकार की और सं० १६८८ मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी को स्वपद पर अहमदपुर में स्थापित किया. अपना आयुष्य निकट जानकर सं० १६८८ मार्गशीर्ष पूर्णिमा को आठ प्रहर का अनशन लिया. अहमदपुर में ही देहोत्सर्ग हुआ.
१. ऐतिहासिक साधन चाहे अत्यन्त लघुतम या सामान्य ही क्यों न हो पर किसी वस्तुविशेष के साथ घनिष्ठ संबंध निकल लाने पर कभी
कभी इतना क्रान्तिकारी और मार्गदर्शक सिद्ध होता है कि तद्विदों को वर्षों की साधनोपरान्त स्थिर सम्मति को बदलना पड़ता है. सूचित 'जसवंत चातुर्मासू' यद्यपि एक विशुद्ध धार्मिक और वह भी सूचनात्मक कृति है तथापि उपयुक्त पंक्तियां सोलह आना इस पर चरितार्थ होती हैं. उदाहरणार्थ राजस्थान के सम्मानीय गबेषक को गोपालनारायणजी बडुरा द्वारा संपादित एवं महाकवि उदयराज प्रणीत 'राजविनोद' के समीक्षात्मक संस्करण में गुजरात के शासक महमूद बेघड़ा का वि० सं० १५४५ का दाहोदवाला शिलोत्कीर्ण लेख अविकल प्रकाशित है, इसके विवेचन में मित्रवर्य डा० एच०डी० सांकलिया ने पृष्ठ ३८ पर लेखान्तर्गत 'अहमदपुर' को अहमदाबाद मानने की संभावना प्रकट की है. प्रश्न होता है कि इस नगर की स्थिति कहां है ? पुरातत्व के अनुसंधाता के लिये यह एक पहेली थी. 'जसवंतचातुर्मास से यह उलझन सरलता से सुलझ जाती है. लोंकागच्छ के आचार्यों का इम नगर से घनिष्ठ संपर्क रहा है. जसवंतजी ने इस नगर को कई बार पावन किया. ३७ वां चौमासा दीव में व्यतीत कर अहम्मदपुर पधारते हैं, वहां से खंभात होकर पुनः अहम्मदपुर आते है. दशवां चातुर्मास भी बड़ौदा होते हुए अहम्मदपुर ही करते हैं और ११ वां अहमदाबाद. इससे स्पष्ट प्रमाणित है कि सूचित नगर की अवस्थिति खंभात और बड़ौदा के बीच कही रही होगी. आचार्यश्री का जब देहान्त अहम्मदपुर में हुआ तो सर्वप्रथम खंभात के श्राद्ध पहुँचे और समुचित रूप से मरणोत्तर व्यवस्था की. अहमदाबाद और अहम्मदपुर तो सर्वथा भिन्न नगर हैं, कारण कि जसवंत चातुर्मास में दोनों का मिग्न उल्लेख स्पष्ट है. हां 'कडूआ मत पटावली' के अनुसार अहमदाबाद का एक उपनगर अहमदपुर सोलहवीं शती में विख्या तथा. पर वह भी सूचित अहम्मदपुर से पृथक ही था. सं० १५५२ का एक स्वतन्त्र उल्लेख भी इस नगर को अहमदाबाद न मानने को प्रेरणा देता है
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