Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२६२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
आवश्यक है. इस पद का अर्थ ठीक नहीं समझ कर संसार के बड़े-बड़े विद्वानों ने भूल की है और परिणामतः स्याद्वाद को संशयवाद अथवा विवर्तवाद कहा है. जैन ग्रंथों में अनेक ऐसे विवेचन हैं जो इस पद का सही रहस्य अथवा अर्थ बताते हैं फिर भी यह भ्रांतिपूर्ण परम्परा अब तक चली आ रही है. जो शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ हो उसी अर्थ में उसे ग्रहण किया जाना चाहिए. अन्यथा यदि अर्थ का अनर्थ हो तो उसमें क्या आश्चर्य है ? भाषा के अनुसार स्यात् शब्द का अर्थ भले ही 'सम्भवतः' अथवा 'कदाचित्' होता हो, किन्तु यहाँ पर 'स्यात्' शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है. इसका प्रयोग कथंचित् अर्थात् 'विशिष्ट अपेक्षा से' इस अर्थ में हुआ है. इस अर्थ में जब हम 'स्यात् अस्ति घटः' अथवा 'स्यात् नास्ति घटः' कहते हैं तब उसका यह अर्थ नहीं होता कि सम्भव है यहाँ घड़ा है, अथवा सम्भव है यहाँ घड़ा नहीं है. किन्तु इसका अर्थ होता है 'कथंचित्' अर्थात् 'किसी विशिष्ट अपेक्षा से' यह घड़ा है. और कथंचित्-किसी विशिष्ट अपेक्षा से यह घड़ा नहीं है. अस्तु, स्यात् पद किसी प्रकार संशय अथवा सम्भावना प्रकट करने के लिए नहीं, अपितु एक निश्चित अपेक्षा का दृष्टिकोण प्रकट करने के लिये प्रयुक्त किया गया है. अंग्रेजी भाषा में स्यात् पद का अर्थ (It may be perhaps, perchance) इस प्रकार किया जाता है जो कि सर्वथा गलत है. संगत और सही अर्थ है-(Under certain circumstances). अतः जहाँ स्यात् अस्ति और स्यात् नास्ति ऐसे पद कहे गए हों वहाँ (Perhaps it is, Perhaps it is not) ऐसा गलत अर्थ करने के स्थान पर (Under certain circumstances it is) तथा (Under certain circumstances it is not) ऐसा अर्थ जाना चाहिए. सर मोनियर विलियम्स की विश्वविख्यात संस्कृत-इंग्लिश डिक्सनरी में यह अर्थ दिया हुआ है. फिर भी हम यदि इसका अर्थ (Rigarding certain aspects) अर्थात् अमुक अपेक्षा से करें तो वह अधिक व्यावहारिक होगा. आचार्य मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी में स्पष्ट कहा है कि 'स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम्' अर्थात् स्यात् अव्यय अनेकान्त का द्योतक है. उपरोक्त विवेचन से इतना तो अब हम समझ ही चुके हैं कि किसी भी एक वस्तु को किसी एक ही पक्ष से देखकर उसके स्वरूप के सम्बन्ध में निर्णय करना एकान्त निर्णय है और इसीलिये वह गलत है. अनेकान्तवाद हमें यही शिक्षा देता है कि किसी भी विषय का निर्णय करने से पहले उसके हर पहलू की जांच करना चाहिए. किन्तु इतना ही समझ लेना पर्याप्त नहीं है कि वस्तु के अनेक पक्ष, अनेक अन्त होते हैं. हमें यह भी जानना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु में आपस में विरोधी अनन्त-गुण-धर्मात्मक अनेक प्रकार की विविधताएं भरी हुई हैं. इस दृष्टि से जैन दार्शनिकों का कहना है कि जो वस्तु तत्त्वस्वरूप है, वह अतत्त्व रूप भी है. जो वस्तु सत् है, वह असत् भी है. जो एक है, वह अनेक भी है. जो नित्य है, वह अनित्य भी है. इस प्रकार हर एक वस्तु परस्पर विरोधी गुण धर्मों से भरी हुई है. इस महत्त्वपूर्ण बात को ठीक तरह से समझ लेने पर ही हम अनेकान्त अथवा स्याद्वाद के सही अर्थ को समझ सकते हैं. स्वाभाविक रूप से यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि 'जो सत् है वही असत् कैसे हो सकता है ?' सामान्य दृष्टि से देखने पर हमें प्रतीत हो सकता है कि यह विरोधाभास इतना प्रबल है कि इसे देखने से जैन दार्शनिकों द्वारा कही गई बात में संशय हो सकता है. किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है. जैन दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद की दृष्टि से, अनेक भिन्न-भिन्न दृधिबिन्दुओं तथा विचारधाराओं का एक साथ विचार करने के बाद ही यह
१. पृष्ठ १२७३. २. जैनधर्मसार-स्व० चन्दुलाल शाह. ३. पांचवें श्लोक की व्याख्या.
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