Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२६८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय कुछ अन्य दर्शन (उदाहरण के लिये बौद्धदर्शन) यह स्वीकार करते हैं कि आत्मा अन्ततोगत्वा किसी दीपक की लौ के समान बुझ जाती है और शून्य में विलीन हो जाती है. वह विलीनीकरण उस जीवात्मा का पूर्ण अनस्तित्व (Total Extinction) है. इसके विपरीत जैनदर्शन की यह विशिष्ट मान्यता है कि प्रत्येक जीवात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है. जीवन्मुक्ति के पश्चात् आत्मा सिद्ध (परमात्मा) बन जाती है. और सिद्धात्माओं के निवास (सिद्धशिला) पर वह एक स्वतंत्र सिद्ध-परम आत्मा के रूप में स्थित रहती है. इस तरह जैनदर्शन प्रत्येक प्रात्मा के उच्चतम विकास और अस्तित्व के लिये एक अनन्त अवकाश की मान्यता रखता है. जैनदर्शन की यह मान्यता विशिष्ट तो है ही, साथ ही पूर्णतया तर्कयुक्त और व्यापक भी है.
जैनदर्शन और जगत् मानव-मस्तिष्क में ये प्रश्न सदा से उठते आये हैं कि जिसमें हम सदा से रहते आये हैं और रहते हैं वह जगत् क्या है ? कब से है ? इसका निर्माण किसने किया ? किन उपादानों से किया ? अथवा क्या यह अनादिकालीन है ? अकरणीय है ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने और देने का प्रयत्न विभिन्न दर्शनों ने किया है. भिन्न-भिन्न समय पर और भिन्न कारणों से संसार के निर्माण किये जाने की बात ये भिन्न-भिन्न दर्शन कहते हैं. किन्तु जैसा तर्क युक्त और संगत समाधान जैनदर्शन इस सम्बन्ध में प्रस्तुत करता है वह इन सब में विशिष्ट और श्रेष्ठ है. महात्मा बुद्ध ने, जो भगवान् महावीर के प्रायः समकालीन थे, ऐसे प्रश्नों पर अधिक कुछ भी नहीं कहा है. परन्तु भगवान् महावीर ने उनका सरल और बुद्धिगम्य स्पष्टीकरण किया है. जहाँ वस्तुएँ इतनी अधिक हों कि प्रत्येक की पृथक्-पृथक् गणना संभव न हो, वहाँ वर्गीकरण का सिद्धान्त उपयोगी होता है. जगत् का वर्गीकरण करने से हमें दो तत्त्व-मौलिक पदार्थ-उपलब्ध होते हैं. (१) जीव और (२) जड़. इनके अतिरिक्त और कोई मौलिक वस्तु है ही नहीं, अतएव यह कहा जा सकता है कि जीव और जड़ के समूह को ही जगत् कहते हैं. प्रत्येक प्राचीन दर्शनशास्त्र और आधुनिक विज्ञान, इन दोनों की मान्यता है कि "नासतो विद्यते भावः, नाभावो जायते सतः" अर्थात् जो सत् नहीं, असत् है, वह कभी सत् नहीं हो सकता और जो सत् है उसका कभी अभाव नहीं हो सकता, इस सर्वसम्मत सिद्धान्त को स्मरण रखते हुए विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि जगत् यदि सत् है (और उसकी सत्ता निर्विवाद सिद्ध है) तो वह अनादिकालीन अवश्य है. इसका निर्माण न किसी ने किया है और न करने की आवश्यकता ही थी. इस प्रकार दो मौलिक पदार्थों का समूहात्मक संसार सदा से विद्यमान था, है और रहेगा. इसमें दिखलाई देने वाली विविधता इन्हीं दोनों वस्तुओं के अमुक भांति के सम्मिश्रण आदि पर निर्भर है. एक उदाहरण लीजिएमिट्टी जड़ वस्तु है. कुम्हार उसे लेता है, चाक पर चढ़ाता है और घड़ा बना देता है. अब वह मिट्टी घड़े के रूप में आ जाती है. इसी प्रकार अन्यान्य वस्तुएँ अमुक प्रकार के संयोगों में पड़कर भिन्न-भिन्न रूप धारण करती रहती हैं. यही जगत् की विविधता का रहस्य है. किन्तु इस बाह्य विविधता के आवरण को चीर कर भीतर नजर डालने से हमें उल्लिखित जड़ और चेतन, यही दोनों मौलिक पदार्थ उपलब्ध होते हैं. ये अनादिकालीन हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे. अतः ऐसा कहना सर्वथा उचित ही है कि जगत् अनादिकालीन है और अनन्त काल तक रहेगा. इसका न तो कोई कर्ता है, न हर्ता है. जगत् की उत्पत्ति अथवा रचना के सम्बन्ध में जनदर्शन का यह सर्वथा मौलिक, तर्कसम्मत, बुद्धिगम्य और विशिष्ट दृष्टिकोण है. क्या ईश्वर कर्ता है ? कुछ ऐसे मत हैं जिनकी मान्यता के अनुसार यह सारी सृष्टि परमात्मा के ही द्वारा उत्पन्न की गई है. किन्तु जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, सृष्टि अनादिकालीन है, अत: इसके बनने का प्रश्न ही नहीं उपस्थित होता. फिर भी तर्क के लिये
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