Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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ज्ञान भारिल्ल : अनन्य और अपराजेय जैनदर्शन : २६६
यदि हम यह मान लें कि परमात्मा ही इसे बनाता और बिगाड़ता है तो यह शंका उत्पन्न होती है कि आखिर इन झंझटों में पड़ने की उसे क्या आवश्यकता है ? इसमें उसका क्या अभिप्राय है ? ईश्वर कोई बालक नहीं है कि अपने मनोरंजन के लिये वह सृष्टि को बनाए और बिगाड़े. फिर यदि सृष्टि को बनाने का उसका स्वभाव है तो वह उसे बिगाड़ता क्यों है ? बिगाड़ने का स्वभाव है तो बनाता क्यों है ? बनाने और बिगाड़ने के दोनों स्वभाव परस्पर विरोधी हैं, अत: दोनों एक ही परमात्मा में नहीं हो सकते. परमात्मा सब प्रकार की इच्छाओं से मुक्त है. उसे सृष्टि बनाने की इच्छा नहीं हो सकती. तब कौन बलात् उससे बनवाता है ? यदि कोई बलात् उससे बनवा लेता है तो वह ईश्वर ही कैसे रहा ? वह बलात्कार करने वाली शक्ति ही क्या ईश्वर नहीं हुई ? ईश्वर तो उसके हाथ का एक कठपुतला हुआ. इस प्रकार ईश्वर के ईश्वरत्व में ही बट्टा लगता है. ईश्वर को दयालु माना जाता है. यदि वह दयालु भी है और कर्ता भी है तो उसने भांति-भाँति के दुखों का सृजन क्यों किया ? अपने माता-पिता के सर्वस्व, निर्दोष जीवनाधार पुत्र को असमय में ही मार कर उन्हें असह्य वेदनाओं में पटक कर उनकी छटपटाहट देखता रहता है, तब ईश्वर की दयालुता कहाँ चली जाती है ? इस प्रकार सृष्टि को अनन्त दुःख देता हुआ क्या ईश्वर दयालु कहा जा सकता है ? । यहाँ यह कहा जा सकता है कि यह जीव के पूर्वोपाजित कर्मों का फल है. न पहले पाप करता न ऐसा दुःखमय परिणाम भोगना पड़ता. इसमें ईश्वर क्या कर सकता है ? किन्तु यह बचाव भी विचार करने पर छिन्न-भिन्न हो जाता है. ईश्वर सर्वज्ञ है और सर्वशक्तिशाली भी माना जाता है. जब उन जीवों ने पाप करने का विचार किया तो सर्वज्ञ ईश्वर ने जाना ही होगा. वह दयालु है इसलिए उन्हें पाप से बचाने का प्रयत्न वह कर सकता था. और वह सर्वशक्तिमान् है इसलिए किसी प्रकार उन्हें पाप से रोक भी सकता था. किन्तु उसने ऐसा कुछ नहीं किया-वह सर्वज्ञ-दयालु, सर्वशक्तिमान् और कर्ता ईश्वर केवल देखता ही रहा! यह विचार कहाँ तक उचित है इसे पाठक स्वयं ही सोच सकते हैं. अस्तु, जैनदर्शन ईश्वर को इन प्रपंचों से, इस क्रूरता से मुक्त रखता है. वह ईश्वर को इन कलंकों से बचाता है. वह मानता है कि ईश्वर सर्वज्ञ है, पूर्ण वीतराग है, कृतकृत्य है, अपुनरावृत्ति है, सांसारिक झझटों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है. एक मात्र शंका, जो यहाँ उपस्थित की जा सकती है, वह यह है कि यदि ईश्वर वीतराग है, निग्रह और अनुग्रह नहीं करता, रुष्ट और तुष्ट नहीं होता, तो वह अपने भक्तों की भलाई नहीं करेगा. तब उसकी आराधना करने की क्या आवश्यकता है?
इसका स्पष्ट और सरल उत्तर यह है कि ईश्वर हमारी भलाई करे, इसलिए हम उसकी आराधना करें; यह स्वार्थपूर्ण हृदय की वासना है. ऐसी भावना के साथ ईश्वरभक्ति करना वास्तविक भक्ति नहीं है बल्कि रिश्वत देकर उसे फुसलाना ही है. भक्ति में आदान-प्रदान की भावना नहीं होती, सर्वस्व दान की कामना होती है. भक्ति व्यापार नहीं है. अतः निष्काम भक्ति ही वास्तविक भक्ति है. कल्याण स्वयं ही इस प्रकार की भक्ति द्वारा आकर चरणों पर लोटता है. कहा गया है--'देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो.' (जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है, देवता भी उस के चरणों पर लोटते हैं.) तात्पर्य यह नहीं है वीतराग की भक्ति से कुछ लाभ नहीं होता. मानसशास्त्र का यह नियम है कि जो व्यक्ति सदैव जिसका स्मरण करता है, जैसा बनने की भावना करता है, वह कालांतर में वैसा ही बन सकता है. इस नियम के अनुसार वीतराग का स्मरण करने से और वीतराग बनने की प्रबल भावना से भक्त भी वीतराग बन जाता है. इसके अतिरिक्त वीतराग भगवान् आत्मविकास के सर्वोत्तम आदर्श हैं. हमें उस आदर्श तक पहुँचना है. अतः हमारा ध्यान सदैव उस आदर्श पर रहना चाहिए. जड़ होने के कारण अंजन की इच्छा नहीं होती कि अमुक व्यक्ति मुझे सेवन करता है, इसलिए उसकी दृष्टि निर्मल कर
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