Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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ज्ञान भारिल्ल : अनन्य और अपराजेय जैनदर्शन: २६७
ब्रह्मचर्य एक अत्यन्त व्यापक व्रत है, इसका पूर्णतया पालन संसारी मनुष्यों के लिये संभव नहीं है. किन्तु व्यवहार में इसे दो प्रकार से लागू किया गया है. एक तो परस्त्री के प्रति कुदृष्टि अथवा कुविचार न करना, दूसरे स्वपत्नी के साथ अब्रह्मचर्य का सेवन सीमित करना. इसमें मन, वचन काय तीनों पर अंकुश रखना आवश्यक माना गया है. अपरिग्रह अन्तिम आचार माना गया है. आज जो संसार की स्थिति है उसमें अपरिग्रह के सिद्धान्त का पालन कितना उपयोगी है, यह बहुत आसानी से समझा जा सकता है. अपरिग्रह का अर्थ है-अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना. आज इस भौतिक जगत् में हमारे चारों ओर जो सामाजिक और राजनैतिक दुर्दशा दिखाई पड़ती है, उसका एक प्रधान कारण अपरिग्रह व्रत का पालन न करना भी है. आज के संसार में धनवान् तथा गरीब वर्ग के बीच असह्य असमानता में से कार्ल मार्क्स (Karl Marx) का नया अर्थशास्त्र उत्पन्न हुआ. उससे प्रेरणा पाकर लेनिन (Lenin) ने रूस में एक जबरदस्त क्रान्ति उपस्थित की. उसमें से साम्यवाद तथा समाजवाद उत्पन्न हुये और उनसे रक्तमय क्रान्तियाँ हुईं. जैन समाज-शास्त्रियों ने आज से हजारों-लाखों वर्षों पूर्व अपरिग्रह का जो अर्थशास्त्र बनाया था, यदि उसका पालन किया गया होता तो द्वेष, विद्वेष मारकाट और व्यापक हिसा से पूर्ण घटनाएँ विश्व में न होती. कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, चाउ एन लाई आदि साम्यवादियों द्वारा अपनाई गई विचारधाराएँ तथा कार्यप्रणालियाँ भी घातक ही हैं. क्योंकि इनके पीछे अहिंसा की कोई भावना नहीं है. शौषकों की हिंसा के विरुद्ध साम्यवादियों की हिंसा आई. किन्तु हिंसा से हिंसा नहीं मिटती, हिंसा से दुख समाप्त नहीं होता, हिंसा से सुख प्रकट हो ही नहीं सकता. यह एक भयानक विषमचक्र है, और अपरिग्रह का अभाव इसके मूल में है. मानव जाति को यदि सुख और शान्ति चाहिए तो इसका सच्चा और सफल उपाय अपरिग्रह का पालन ही है. सादगी
और सन्तोष की वृत्ति विकसित करना ही है. परिग्रह से कभी सन्तोष-सुख नहीं मिलता है. संक्षेप में इसी प्रकार कह सकते हैं कि जैनतीर्थकर भगवन्तों ने संसारी मनुष्यों के पालन करने के लिये उपरोक्त पाँच आचार-सिद्धान्त बताए हैं, उनके पालन के अतिरिक्त समूची मानव-जाति की रक्षा, अस्तित्व और उद्धार का कोई अन्य मार्ग नहीं है. इन सिद्धान्तों पर बड़ी गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए. जैनदर्शन के ये अक्षत सिद्धान्त परस्पर जुड़े हुए हैं. इनमें से आप एक को छोड़िए तो दूसरा स्वतः छूट जाता है. इतने विवेचन से यह बात अब हमारी समझ में सहज ही आ जाती है कि यदि मनुष्य, मानवता एवं संसार की सुरक्षा
और उन्नति का कहीं कोई मार्ग है तो वह मार्ग हमें जैनदर्शन ही दिखाता है. इन विशिष्टताओं को अपने भीतर समाहित किए हुए इस अद्भुत जैनदर्शन को यदि विश्व का सर्वश्रेष्ठ, अनन्य और अपराजेय दर्शन कहा जाय तो न इसमें कोई अतिशयोक्ति है और न कोई असत्य का अंश. यह बात एक निर्विवाद तथ्य के रूप में हमारे सामने स्पष्ट हो जाती है. जैनदर्शन में आत्मविकास का अनन्त अवकाश आत्मा और परमात्मा के विषय में विभिन्न दर्शनों की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं. जैनदर्शन की भी इस सम्बन्ध में अपनी एक विशिष्ट मान्यता है. और विचार करने पर हम देखेंगे कि वह मान्यता अन्य दर्शनों की सीमित मान्यताओं से कितनी विशिष्ट व्यापक और उच्च है. कुछ दर्शन आत्मा के विषय में यह मानते हैं कि विभिन्न जीवात्माएँ वस्तुतः किसी एक ही परम-आत्मा (ईश्वर) का विस्तार हैं. अपना विकास और शुद्धि करते करते वे अंत में मुक्त होकर उसी परम-आत्मा में विलीन हो जाती हैं, हो सकती हैं. इस तरह ये दर्शन भिन्न-भिन्न जीवात्माओं की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार न करते हुए एक ही ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं.
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