Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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Jain dan
ज्ञान भारिल्ल : अनन्य और अपराजेय जैनदर्शन : २५६ ऐसी पद्धति से युक्त है जो मनुष्य को किसी भी वस्तु के विषय में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने की समझ प्रदान करता है.
आज पश्चिम भौतिकवादी हो चुका है. भौतिक सुख और विकास ही उसका लक्ष्य है. उसका दर्शन भौतिक एवं सांसारिक सुखों के चारों ओर ही घूमता है. परिणामतः पश्चिम के देश दर्शन के पूर्ण विकास से बहुत ही दूर पड़े हुए हैं. जबकि भारत में धर्म तथा दर्शन भौतिक विकास या सुख के साधन न माने जाकर आत्म विकास के साधन माने गए हैं. प्रकृति की कोई सांकेतिक लीला ही समझा जा सकता है कि दुनिया भर के सभी धर्मो का उद्भवस्थान एशिया खण्ड ही रहा है. हिन्दूधर्म, जैनधर्म, बौद्धधर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म - ये पांचों धर्म आज के विश्व के मुख्य धर्म हैं. इनमें से संसार ने जैन, बौद्ध और हिन्दू-धर्म को तो भारत में विकसित होते देखा है जब कि इस्लाम और ईसाई धर्म भी एशिया से ही अस्तित्व में आए हैं. '
इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म तो पिछले दो ढाई हजार वर्ष से ही अस्तित्व में आए हैं. इसे सारा संसार जानता है. शेष रहते हैं हिन्दू तथा जैनधर्म इन दोनों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को अनादिकालीन होने का दावा करते हैं. हमें इस निबन्ध में इस चर्चा में नहीं पड़ना है कि कौन-सा धर्म प्राचीन या अनादि है और कौन-सा अपेक्षाकृत नया. और किसी भी धर्म अथवा दर्शन की श्रेष्ठता केवल इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह कितना पुराना है. ठीक वैसे ही जैसे कि वह अपने अनुयायियों की संख्या पर भी निर्भर नहीं करती. किन्तु यदि हम खोज करें तो यह प्रकट होता है कि वेदों और भागवत आदि ग्रंथों में, जो कि हिन्दू धर्मशास्त्रों में अधिक से अधिक प्राचीन माने गए हैं, जैनों के वर्तमान तीर्थंकरचौवीसी के पहले तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के सम्बन्ध में उल्लेख मिलते हैं. इससे सहज ही यह सिद्ध होता है कि इन दोनों धर्मों में भी जैन धर्म ही अधिक प्राचीन है. ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा सिद्ध इस बात को अनेक पाश्चात्य तथा भारतीय विद्वानों ने स्वीकार किया है. जैन अनुश्रुति के अनुसार भगवान् महावीर ने किसी नये तत्वदर्शन का प्रचार नहीं किया है. पार्श्वनाथ के तत्त्वज्ञान से उनका कोई मतभेद नहीं. किन्तु जैन अनुबुति इससे भी आगे जाती है. उसके अनुसार श्रीकृष्ण के समकालीन तीर्थंकर अरिष्टनेमि की परम्परा को ही पार्श्वनाथ ने ग्रहण किया था. और स्वयं अरिष्टनेमि ने प्रागैतिहासिक काल में होने वाले नमिनाथ से इस प्रकार यह अनुश्रुति हमें ऋषभदेव, जो भरत चक्रवर्ती के पिता थे, तक पहुँचा देती है. इसके अनुसार तो वर्तमान वेद से लेकर उपनिषद् पर्यन्त सम्पूर्ण साहित्य का मूल स्रोत ऋषभदेव द्वारा प्रणीत जनतत्वविचार ही है.
जहाँ तक दर्शन का प्रश्न है, हिन्दू-धर्म में उसकी अनेक शाखाएँ हैं और हिन्दू दार्शनिकों में हिन्दू-दर्शन के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में मतभेद हैं. वेदान्त, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, चार्वाक आदि-ये भिन्न-भिन्न शाखाएँ हिन्दू धर्म में हैं. इसके अतिरिक्त वेदान्त में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत आदि भी अनेक उपशाखाएँ हैं. वैदिकधर्मसम्मत चौवीस अवतारों में आद्य जैनतीर्थंकर ऋषभनाथ और बौद्धधर्मप्रणेता बुद्ध भी सम्मिलित किये गये हैं. इन सब बातों पर विचार करने से ऐसा लगने लगता है कि वैदिकधर्मं कोई एक धर्म ही नहीं है.
किन्तु इन सब में एक मात्र जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जिसमें स्थिरता, एकता, और मूलभूत दृढ़ता विद्यमान है. इस दर्शन में तत्त्वाश्रित शाखाएँ अथवा उपमार्ग नहीं हैं. धर्माचरण की दृष्टि से जैनधर्म में दिगम्बर, श्वेताम्बर स्थानकवासी आदि शाखाएं हैं किन्तु दर्शन की भूमिका पर वे सभी बालाएं एक है और एकमत ही है. हजारों वर्षों पूर्व, नहीं, अनादि काल से जैन तीर्थंकरों ने ठोस सिद्धान्त संसार के समक्ष रखे हैं. वे आज भी ज्यों के त्यों मौजूद हैंस्पष्ट है कि ऐसा होने का कोई विशेष कारण भी होना चाहिये. यही कारण जैनदर्शन की विशिष्टता है. केवल प्राचीनता की दृष्टि से जैनदर्शन की विशिष्टता का दावा नहीं किया गया है. यह निवेदन हम पूर्व कर चुके हैं.
१. अनेकान्त व स्यादवाद - स्व० चन्दुलाल शाह. २. न्यायावतार वार्तिकवृत्ति (प्रस्तावना)
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