Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्रीकान्तिसागरजी श्रीलोकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य
सन्त-परम्परा के समुज्ज्वल इतिहास में सोलहवीं शती का विशेष महत्त्व है. इस युग को वैचारिक क्रान्तिकारियों का स्वर्ण-काल कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी. कबीर, धर्मदास, नानक, संत रविदास, तरण-तारण स्वामी और श्रीमान् लोकाशाह आदि आदर्श-प्रेरक व्यक्तियों ने इसी समय में क्रान्ति की शंखध्वनि से भारतीय जनमानस को नवजागरण का दिव्य सन्देश दिया था. धर्म के मौलिक तत्त्वों के नाम पर जो विकार, असंगतियाँ और साम्प्रदायिक-कहलमूलक धारणाएं पनप रही थीं उनके प्रति तीव्र असंतोष का ज्वार इन्हीं सन्तों की अनुभवमूलक वाणी में फूटा था. स्वाभाविक था कि आकस्मिक और अप्रत्याशित क्रान्तिपूर्ण विचारधारा के उदय से स्थितिपालक समाज में हलचल उत्पन्न हो. परिणाम स्वरूप प्रतिक्रियावादी भावनाएं जाग्रत हुई. यह सर्वसिद्ध ऐतिहासिक सत्य है कि मानव-संस्कृति का वास्तविक पल्लवन एवं संवर्द्धन संघर्ष की पृष्ठभूमि में ही होता है. शान्तिकाल में ऐहिक और भौतिकमूलक प्रवृत्तियाँ प्रोत्साहित होती हैं. क्रान्ति, नवसर्जन का न केवल प्रेरक संदेश ही देती है अपितु समत्व को मौलिक भावना द्वारा श्रमणसंस्कृति को जन-जीवन में प्रतिष्ठित भी करती है जो जनतन्त्र का मुख्य आधार है. यही कारण है कि सन्त-परम्परा का विकास विपरीत परिस्थितियों में ही हुआ है. वह पाशविकता से लड़ी और पूरी शक्ति के साथ लड़ी, पर मरी नहीं. क्योंकि उसका आदर्श विशाल और उदार भावनाओं पर आधारित था. वहां व्यक्ति की अपेक्षा गुणों का प्रामुख्य था, वह किसी सम्प्रदाय या उच्च व्यक्ति के प्रति नहीं, पर समीचीन तत्त्वों के प्रति बफादार थी. इसीलिए सुदृढ़ और सौंदर्यसम्पन्न परम्पराएं वह डाल सकी, जिस पर शताब्दियों तक मानवता गर्व कर सकती है. यद्यपि श्रीमान् लोकाशाह के कान्तिकारी विचारों का समर्थन उनके अनुयायिवर्ग द्वारा किस सीमा तक और कितना हुआ, इस पर ऐतिहासिक मौन हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि जिस समय विचारक्रान्ति का सूत्रपात हुआ उसकी पृष्ठभूमि को द्योतित करने वाली तात्कालिक साम्प्रदायिक साधन-सामग्री तिमिराच्छन्न है, तथापि उनकी परम्परा का इतिहास इस बात का साक्षी है कि अपने युग में उत्पन्न धार्मिक विकृतियों के प्रति उनका विद्रोह जैन सम्प्रदाय को दूर तक प्रभावित कर एक नवमार्ग का निर्माता और पोषक सिद्ध तो हुआ ही. इसका अकाट्य प्रमाण लोकाशाह और उनकी परम्परा के विरुद्ध रचा गया विपुल साहित्य है, जिसके सृजन में उस युग के चेतना-सम्पन्न मस्तिष्कों को सजग होकर सक्रिय होना पड़ा था. इनमें लावण्यसमय, कमलसंयम उपाध्याय. पावचन्द्र सूरि आदि प्रमुख हैं. किसी नवमत-प्रवर्तक व्यक्ति की विचारधारा का भले ही उस सम्प्रदाय ने तात्कालिक स्वरूप लिपिबद्ध न किया हो. पर समसामयिक साहित्य में, भले ही उसके विपरीत ही क्यों न लिखा गया हो, जो उल्लेख आते हैं, या उसके निरसन के लिए जो पूर्व पक्ष प्रस्तुत किया गया है, उससे उसकी मूल विचारधारा का आंशिक अनुभव तो हो ही जाता है. लोकाशाह की मूल मान्यताएँ क्या रही होंगी? उनका सीमित समय में ही क्षेत्र कितना व्यापक हो गया ? आदि बातों का उत्तर उस सम्प्रदाय का तात्कालिक साहित्य भले ही न दे सकता हो, पर उस समय में जो चर्चास्पद साहित्य विरोधियों द्वारा रचा गया उससे बहुत कुछ संकेत तो मिल ही जाते हैं. परन्तु इन महत्त्वपूर्ण साधनों पर अभी तक बहुत कम विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ है. मैंने प्रसंगवश जितना भी अध्ययन-अन्वेषण किया उसके आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि यदि सूचित विषय का मौलिक ज्ञातव्य प्रकट करना है तो विरोधी साहित्य के अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है. कड़वा मत की 'गुर्वावली' इस रहस्योद्घाटन में सफल साधन सिद्ध हो सकती है.
Jain
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