Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि कान्तिसागर : लोकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २१७
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काम की है. इसका प्रणयन सं० १८६० में पटियाला में हुआ. रघुनाथ स्वयं संस्कृत साहित्य के विशिष्ट अभ्यासी और ग्रन्थकार महानुभाव थे. ये इस गच्छ के आचार्य लक्ष्मीचन्द्र जी के समय में विद्यमान थे. इनका सं० १८६३ में चूरु में चातुर्मास था तब रघुनाथ ने इनकी सेवा में एक बृहत्पत्र संस्कृत भाषा में प्रेषित किया था, जो पत्र-साहित्य की दृष्टि से अन्यतम है. ये आचार्य हरखचंदजी के पट्टधर थे. इनका नाम पट्टावलियों (रघुनाथ कृत पट्टावली के अतिरिक्त) नहीं मिलता है. सूचित पत्र इन पंक्तियों के लेखक द्वारा "जैन सत्यप्रकाश वर्ष १६ अंक १२ में प्रकाशित है. इसी समय उत्तरार्द्ध लाहोरी लुकागच्छ स्थापित हुआ. सरवाजी के अनुयायी लोंकागच्छ की मूल मान्यताओं के अनुगामी बने रहे. सूचित उत्तरार्द्ध गच्छानुयायी सरवाजी के शिष्य अर्जुन के शिष्य दुर्गादास ने सं० १६३५ में "खंधक चौपाइ" की रचना की जिसका परिचय" 'जन गूर्जर कविओ" भाग ३ पृष्ठ ७४० पर दिया है. सुप्रसिद्ध कलासमीक्षक डा० आनन्दकुमार स्वामी के समीप सं० १६८० के चित्रित समवरण-चित्र में उत्तरार्द्ध गच्छीय आचार्य कृष्णचंद्र और मुनि ताराचन्द के नाम आते हैं. ८. जीवराजजी-रूपऋषिजी ने जीवराज जी को सं० १५७८ में स्व पद पर स्थापित किया. ये सूरत के देशलहरा गोत्रीय तेजल-तेजपाल की पत्नी कपूरा बाई के पुत्र थे. जन्म सं० १५५०, दीक्षा सं० १५७८ माह शुक्ला २ गुरुवार, रुपऋषि-भास में इनका दीक्षा समय सं० १५७८ सूचित किया है और जीवराजजी-भास में वही कवि सं० १५६८ सूचित करता है जब कि सं० १५६८ में तो रूपजी स्वयं संयम स्वीकार करते बताये गये हैं. सं० १६१२ वैशाख सुदि ६ को बड़े बरसिंघजी को पद पर स्थापित किया, एवं स्वयं सं० १६१३ ज्येष्ठ शुक्ला ६ सोमवार को ५ दिन का अनशन लेकर ६३ वर्ष की आयु में परम धाम प्रस्थित हुए. इनके नाम से "गुजराती लोंकागच्छ ' प्रसिद्ध हुआ. जीवराजजी के एक शिष्य मोल्हा की अज्ञात रचना "लोकनालिका बालावबोध" प्राप्त है. जिसका आदि और अन्त भाग यहाँ उद्धृत किया जा रहा है
श्रादिदेवं नमस्कृत्य बालानां बोधहेतवे । कियतेनुपकाराय नालिकायास्तुवात्तिकं ॥१॥ जीवऋषि महापूज्यः तस्य पादप्रसादतः ।
कृतं मोल्हा मुनिंद्रेण नालिकायास्तुवात्तिक ।।२।। अन्त भागः-- इत्याचार्य श्रीजीवऋषिचरणांभोजसेवक मोल्हाभिधानेनकृतः लोकनालिकायाः वार्तिकावबोधः समाप्तः ।। श्रीरस्तु । सं० १६०६ ॥ स्मरणीय है कि गुजराती लोंकागच्छ में एक और मुनि इसी नाम के प्रसिद्ध रहे हैं जो चतुर कवि कृत "चंदन मलयागिरि चौपाई" (र० का० सं० १७७१) में उल्लिखित हुए हैं. लोकनालिका के वात्तिककार पूर्ववर्ती हैं. जीवराजजी के दो शिष्य कुंवरजी और श्रीमल्लजी थे, जिनसे कुंवरजी पक्ष की स्थापना हुई. इनकी परम्परा भी विद्वान्
१. श्रीमल्लजी के एक शिष्य सुन्दरऋषि थे जिनकी अज्ञात रचना हीराचक्र भाषा" मेरे संग्रह में सुरक्षित है. यद्यपि कवि ने आत्मवृत्त नहीं
दिया है, पर अहमदाबाद से प्रकाशित "श्रीप्रशस्ति संग्रह में एक लेखनपुष्पिका सं०१७५७ (पृष्ठ २६८) की आई है जिसमें सुन्दरऋषि का नामोल्लेख श्रीमलजी के शिष्य के रूप में हुआ है, इसी आधार पर इन्हें उनका अन्तेवासी माना है. होराचक्र भाषा का अन्तिम पद्य इस प्रकार है
कछुक पराई उक्त हरि कछु निज हिय विमांस
सुन्दरऋषि भाषा रची होडाचक्र बिलास । कृति साधारण होते हुए भी सामान्य ज्यौतिषी का मार्ग प्रशस्त कर सकती है. होराशास्त्र को कवि ने संक्षेप में समझाने का प्रयास किया है, 'जैन गूर्जर कविओ' के तीसरे भाग में सुन्दर ऋषि का उल्लेख है. नहीं कहा जा सकता है कि वह यही है या कोई अन्य ?
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