Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२१६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय इनका स्वर्गगमन देसाई ने सं० १५३७ सूचित किया है, पर वह सत्य प्रतीत नहीं होता, कारण कि 'कडुआ मत पट्टावली' के अनुसार सं० १५४० में नाडोलाई में कडवा शाह इन से मिले थे और वार्तालाप हुआ था, अत: इस समय तक तो भाणाजी का अस्तित्व असंदिग्ध है. इस पट्टावली में और भी लोकाशाह के अनुयायियों के संबंध में कतिपय महत्त्वपूर्ण उल्लेख हैं जिनका स्वतन्त्र पर्यवेक्षण अपेक्षित है. २. भीदाजो-सिरोही के ओसवाल, साथडीया गोत्रीय, स्व० तोला के भाई, अहमदाबाद में सं०१५४० में ४५ व्यक्तियों के साथ दीक्षा भाणाजी के पास ग्रहण की. ३. नाजी-सिरोही के ओसवाल, दीक्षा सं० १५४५ या ४६. ४. भीमाजी-पाली निवासी, लोढ़ा गोत्रीय, संयम ग्रहण सं० १५५०. ५. जगमालजी-उत्तराधवासी, ओसवाल सुराणां गोत्रीय, दीक्षा ग्रहण सं० १५५०, झांझणनगर में. ६. सरबाजी—दिल्ली निवासी श्रीश्रीमाल ज्ञातीय सिंधूड़ गोत्रीय, संयम ग्रहणकाल सं० १५५४, 'लोंकागच्छ की बड़े पक्ष की पट्टावली' में उल्लेख है सरबाजी ने एक माह का संथारा पचखा था. विजयगच्छ---सरवाजी के समय में लोंकागच्छ में प्रथम क्रान्ति हुई और परिणामस्वरूप विजय ऋषि ने 'विजयमत' की स्थापना की. संस्थापन काल पर विद्वज्जगत् में भिन्नत्व है. कोई तो सं० १५६५ या १५७० मानते हैं. जैनधर्म और साहित्य की दृष्टि से यह परम्परा प्राणवान् रही. तात्कालिक मुगल शासकों पर भी कतिपय आचार्यों का प्रभाव अन्यान्य स्फुट ऐतिहासिक पद्यों से प्रमाणित है. विजय ऋषि की परम्परा में आचार्य धर्मदासजी, खेमसागरजी, पद्मसागरसूरि, गुणसागरसूरि, कल्याणसागरसूरि, सुमतिसागरसूरि, विनयसागरसूरि, मनोहर दास, मल्लीदास, विजयसिंह, मोहन ऋषि, पंचायण, सुजाण, गिरधर, केशराज आदि आचार्य और ऐसे स्थविर हुए हैं जिनने धार्मिक प्रभावना के साथ-साथ अपनी प्रतिभा द्वारा पर्याप्त साहित्य सृजन कर भारतीय भाषा ग्रन्थों में अभिवृद्धि की. तात्कालिक ही नहीं आज भी इनकी कृतियों-ढालसागर और रामयशोरसायण-का समाज में सर्वत्र आदर है. विशेषकर राजस्थानमेवाड़ में इस परम्परा का इतना प्रभाव था कि राज-सभाओं में भी इनके अनुयायियों का सम्मान होता था. उययपुर के सुप्रसिद्ध कवि मानजी की रचनायें-संयोगद्वात्रिशिका, राजविलास और बिहारी सतसई की हिन्दी टीका-प्रादि स्फुटआज भी साहित्यिक जगत् का अभिमान हैं. आज तक केवल यही माना जाता था कि इस परम्परा का साहित्य केवल केशराज और गुणसागरसूरि द्वारा ही रचित है, पर मेरे संग्रहस्थ एक विजयगच्छ के गुटके में इस संप्रदाय का प्रचुर भाषासाहित्य उपलब्ध हुआ है जिससे कई अज्ञात कवियों का पता चला है. सत्रहवीं शताब्दी से लगाकर उन्नीसवीं शती तक विजयगच्छीय यति-मुनियों ने जो सारस्वतोपासना की है, वस्तुतः वह अभिमान की वस्तु है. मेवाड़ के जैन-सांस्कृतिक इतिहास में इनका अनुपम योग रहा है. अन्वेषण का क्षेत्रप्रशस्त होने पर और भी रचनायें उपलब्ध हो सकती हैं. कोटा, बयाना में इनके सुविशाल साहित्यसंग्रह विद्यमान हैं. ७. रूपजी-अणहिलपुर पाटण निवासी, ओसवाल वैद गोत्रीय, पिता देवा, माता मिरधाई, जन्म सं० १५४३, स्वयमेव दीक्षा सं० १५६८ माह शुक्ला पूर्णिमा. इनने पाटणगच्छ-गुजराती लोंकागच्छ की स्थापना की. लोंकागच्छ को बड़े पक्ष की पटावली में विशेष उल्लेख है कि रूपा साह ने शत्रुजय का संघ निकाला था और बाद में सरवाजी का अहमदाबाद में व्याख्यान सुनकर प्रवजित हुए और वह भी ५०० व्यक्तियों के साथ. अन्य प्रमाण इस के समर्थन में अपेक्षित है. रूपजी ने सं० १५७८ में जीवराजजी को संयम देकर स्वपद पर स्थापित किया. ७ वर्ष तक गुरु-शिष्य साथ में विचरण करते रहे. इनके समय में हीरा नामक व्यक्ति ने - "नागौरी लंकागच्छ" की स्वतंत्र स्थापना की और मूर्तिपूजा स्वीकार की. इन के परवर्ती अनुगामियों ने भी जैन संस्कृति को गौरवान्वित किया. अनुसंधान की दृष्टि से यह परम्परा भी उपेक्षित ही रही है. यति रधुनाथ ने इस शाखा की विस्तृत पट्टावली संस्कृत भाषा में लिखी है जो इतिहास की दृष्टि से बहुत ही
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