Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
若第茶業務器端装紫装款業辦業業蒸蒸菜菜
२१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय रामदास-यह लोंकागच्छीय उत्तम के शिष्य थे. इन्होंने 'पुण्यपाल राजा का रास' (सं० १६६३ जेठ वदि १३, गुरुवार सारंगपुर-मालवा) की रचना की. इसकी अंतिम प्रशस्ति महत्त्व की है. रायचन्द--रायचन्द सुप्रसिद्ध लोंकागच्छीय जयमलजी के शिष्य थे. इनकी कृतियों में उल्लिखित ग्रंथाधारों से विदित होता है कि ये स्वाध्याय के प्रति विशेष रूप से आकृष्ट थे. इन्होंने सं० १८३३ से सं० १८४७ तक साहित्यिक जीवन व्यतीत कर ज्ञान और क्रिया का समन्वयमूलक आदर्श उपस्थित किया. कवित्वशक्ति जैसे इन्हें पारम्परिक रूप से उपलब्ध थी. इनकी रचनाएं इस प्रकार हैं१. समाधि-पचवीसी (सं० १८३३, मेड़ता) २. गौतम स्वामी का रास (सं० १८३४ भादों सुदि ६, बीकानेर) ३. कलावती चौपई (सं० १८३७ आसोज सुदि ५, मेड़ता) ४. आषाढ़भूति चौढालिया (सं० १८३४ विजयादशमी नागौर) ५. मृगांकलेखा चौपई (सं० १८३८ भादों वदि ११, जोधपुर) ६. महावीर चौढालिया (सं० १८३६ दीपावली, नागौर) ७. ऋषभ चरित (सं० १८४० आसोज सुदि ५, पीपाड़) ८. नर्मदा सती की चोपई (१८४१ मिगसर, जोधपुर) ६. सज्झायादि रूपचन्द—यह मेघराज की परम्परा के प्रेमकृष्ण के शिष्य थे. रूपचन्द जी ने अपनी कृतियों में अपनी पूर्व परम्परा का सुन्दर वर्णन किया है. यद्यपि इनकी भाषा गुजराती है तथापि अधिक समय तक बंगाल में निवास करने के कारण हिन्दी और बंगला का स्वल्प प्रभाव इनकी रचनाओं में आ गया है. इनकी अधिकतर रचनाएं आजमगढ़ में हुई हैं. संभव है यह आदेशी के रूप में वहां की गद्दी के संरक्षक के रूप में रहे हों. इनकी रचनायें इस प्रकार हैं१. श्रीपाल चौपाई (सं० १८५६ फाल्गुन वदि ७ रविवार मकसूदाबाद) २. धर्मपरीक्षण रास (सं० १८६० मिगसर सुदि ५, शनिवार अजीमगंज) ३. पंचेन्द्रीय चौपई (सं० १८७३ वैशाख सुदि ८ रविवार मकसूदाबाद) ४. रूपसेन चौपई (सं० १८७८ श्रावण सुदि ४ गुरुवार अजीमगंज) ५. अम्बडरास (सं० १८८० जेठ सुदि १०, बुधवार, मकसूदाबाद) उपर्युक्त रचनाओं में कोरा धार्मिक वर्णन ही नहीं है अपितु इनमें लोककथाएं भी समाविष्ट हैं. 'अम्बड-चरित्र' में क्षत्रिय अम्बड का अद्भुत चरित्र वर्णित हुआ है. रूपचन्द नाम के कतिपय पूर्ववर्ती कवि भी हुए हैं. लालचन्द-इनका नाम स्थानकवासी परम्परा की १६ वीं शती की पट्टावलियों में मिलता है. 'सवत्थ पच्चीसी' (सं० १८६३ फाल्गुन सुदि ६, भाणपुर) और 'बुद्धिप्रकाश'- समुद्रबद्धकाव्य (सं० १८६३ कोटा) इनकी अज्ञात रचनाएं हैं. इनके स्फुट छंद, सवैया, कवित्त आदि विभिन्न संग्रहों में मिलते हैं. विनय-यह अनूपदेवजी के शिष्य थे. इन्होंने मयणरेखा चौपई (सं० १८७० माघ १३, जयपुर) और सुभद्रा चौपई (सं० १८७० पोष शुक्ला १२, जयपुर) की रचना की. 'सुभद्रा चौपई' का रचना-काल श्री देशाई ने अपने जैनगुर्जर कविप्रो में सं० १८७२ से पूर्व माना है, जो ठीक नहीं. यही तथ्य स्वामीजी सांवतरामजी के शिष्य हम्मीरमलजी द्वारा सं० १६०२ मिति आषाढ़ वदि १२ ममनोर में प्रतिलिपित प्रति से भी सिद्ध होता है. प्रशस्ति इस प्रकार है
गुण गुणालंकु महर्ण दुर्मति श्रीश्राचारिज सांमजी, तस श्री चर्ण सेवा ताराचन्दजी करि अति अभिरामजी।
JainEduLblioninine
Samme
dwennamast
myanmelonely.org