Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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आलमशाह खान : लोकागच्छ की साहित्य सेवा : २११
कवि भी हुए हैं. जिनमें एक तो रत्नसिंह के शिष्य मयाचन्द सिद्धिवल्लभ के शिष्य मयाचन्द जो 'नवरत्न स्तवन' (सं०
स्मरणीय है कि इसी समय मयाचन्द नाम के दो अन्य जिनकी रचना 'बुद्धिरास स्वाध्याय' प्राप्त है और दूसरे १८५२ जेष्ठ सुदि ४, मुलतान ) के प्रणेता थे. इन मयाचन्द का मतिलाभ नाम भी था. मानमुनि - 'ज्ञानरस' के प्रणेता मानमुनि नवल ऋषि के शिष्य थे जो सं० १७३९ में विद्यमान थे.
माल- -यह खूबचन्द सन्तानीय नाथाजी के शिष्य थे, जैसा कि इनकी रचनाओं की अन्त्य प्रशस्तियों से प्रमाणित है. प्राप्त कृतियों के आधार पर इनका साहित्यसाधना काल सं० १८१० से सं०१८५७ का मध्यकाल जान पड़ता है. इनकी रचनायें इस प्रकार हैं
१. आषाभूति चौदानिया (सं० २०१० आषाढ़ मुदि २, भुज )
२. राजीमती स्वाध्याय (सं० १८२२, मुन्द्रा )
३. इलाचीकुमार छः ढाला (सं० १८५५ जेठ, अंजार )
४. इशुकार कमलावती छः ढाला (सं० १८५५, जेठ वदि ३, अंजार )
५. षट्बांधवरास छः ढाला (सं० १८५७ कार्तिक, मांडवी)
'जैन- गुर्जर कविओ' भाग ३ पृ० २२८ पर 'अंजनासुन्दरी चौपाई' – जिसका प्रतिलिपिकाल सं० १८०६ है - को स्व० देशाई ने नाथाजी शिष्य मान की रचना माना है, जो स्पष्टतः भूल है. कारण कि 'अंजनासुन्दरी चौपाई' के प्रणेता मुनि माल व गच्छीय भटनेर शाखा के थे और इनका अस्तित्व समय १७ वीं शती का प्रथम चरण उनकी कृतियों से स्पष्ट है. सूचित माल की इसी कृति का उल्लेख 'जैन गुर्जर कविओ' भाग प्रथम पृ० ४६३ पर भी किया गया है. जिसका प्रतिलिपिकाल सं० १६६३ है. अतः यह स्पष्ट है कि देशाई महोदय की भूल के कारण ही १७ वीं शती के माल की रचना १६ वीं शती के लोंकागच्छीय माल के नाम पर चढ़ गई है. भाषा और वर्णनशैली की दृष्टि से भी दोनों का भिन्नत्व स्पष्ट प्रतीत होता है. इसी मुनि माल की रचनाओं को नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित हिन्दी हस्तलिखित पुस्तकों के १८ वें त्रैवार्षिक विवरण (१९४१ - ४३ ) में अज्ञातकर्ता के रचनाएं मान लिया गया है जब कि इनका नाम अंतिम पंक्तियों में स्पष्टतः सूचित है. इस माल की एक दर्जन से अधिक अन्य रचनाएं भी प्राप्त हैं. यह राजस्थानी के कवि थे जब कि नाथाजी के शिष्य गुजराती के. मालासिंह - यह लोकागच्छीय करमसी के शिष्य थे. इनकी रचना 'कलावती चौढालिया' प्राप्त है जिसका रचना - काल सं० १८३५ श्रावण सुदि ५ है.
मेघराज लोकागरीय जनजीवन के शिश्य मेघराज ने 'ज्ञानपंचमी सावन' (सं० १८३०-वीरमगाम) और पार्श्वनाथ स्तवन' (सं० १८४१ ) की रचना की.
उल्लेखनीय है कि इस नाम के चार और कवि भी हुए हैं. प्रथम दिगम्बर सम्प्रदाय के ब्रह्मशांति के शिष्य, जिनका 'शांतिनाथ चरिव' (सं० १६१७ में प्रतिलिपित) प्राप्त है. द्वितीय दिगम्बर सुमतिकीति के शिष्य जिनका 'कोहलद्वादशी रास' ( सं १७५४ में प्रतिलिपित) उपलब्ध है. तृतीय पार्श्वचन्द्रगच्छीय श्रवण ऋषि के शिष्य जिनकी नलदमयन्ती रास (सं० १६६४ ) सोलह सती का रास, राजचन्द्र प्रवहण (सं० १६६१ ) पार्श्वचन्द्र स्तुति, रायपसेणी बालावबोध और स्थानांग बालावबोध आदि रचनाएं मिलती हैं. चतुर्थ मेघराज आंचल गच्छीय भानुलब्धि के शिष्य थे जिनके 'सत्तर भेदी पूजा' और 'ऋषमजन्म' ग्रंथ उपलब्ध हैं. इनका समय १७ वीं शती का उत्तरार्द्ध है.
रत्नचन्द्र —– यह गुमानचन्द के प्रशिष्य और दुर्गादास के शिष्य थे. इन्होंने चतुर्दश ढालबद्ध 'चन्दनबाला चौपाई ' सं० १८५२ ) और पंचढालबद्ध निर्मोहीढाल (सं० १८७४ पाली में ) लिखी.
इस नाम के दो अन्य विद्वान् भी हुए हैं. जिनमें से एक बड़गच्छीय समरचन्द्र के शिष्य 'पंचाख्यान चौपाई' (सं० १६४८ ) के प्रता और दूसरे सपागच्छीय शांतिचन्द्र के शिष्य 'सूरत संग्रामपुर कथा' (सं० १९७०) के रचयिता हैं.
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