Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय ६. नेमिनाथ स्तवन (रचनाकाल सं० १७७० कालावड़) ७. मेघमुनि स्वाध्याय (रचनाकाल सं० १७७० कालावड़) ८. स्थूलभद्र स्वाध्याय किशनदास स्थानकवासी जैन संप्रदाय में 'बावनी' संज्ञक रचना लिखने वाले यह तीसरे कवि हैं. इनकी 'किशनबावनी' हिन्दी की सुन्दर, भावपूर्ण और विचारोत्तेजक्र रचना स्वीकार की जा सकती है. इसका निर्माण संघराजजी के समय में सं० १७५८ विजया दशमी को साध्वी रतनबाई के देहावसान पर आगरा में हुआ. कुवरजी—यह लोंकागच्छीय परम्परा के ८ वें आचार्य जीवराजजी के शिष्य थे. अहमदाबाद के श्रीमाली वणिक् लहुवोजी की धर्मपत्नी रूडी बाई की रत्नकुक्षि से इनका जन्म हुआ. सात ध्यक्तियों के साथ सं० १६०२ जेठ सुदि पंचमी को दीक्षा अंगीकार की, सं० १६१२ में गुरुपट्टस्थान हुआ और सं० १६२८ दीपावली को स्वर्गगमन हुआ. कुंवरजी ने अपने गुरु से पृथक् हो एक स्वतन्त्र पक्ष स्थापित किया था. कुंवरजी ने आत्मशुद्धि एवं जीवनोत्कर्ष के लिए सं० १६२४ श्रावण सुदि १३, गुरुवार को 'साधुवन्दना' का प्रणयन किया. सं० १६२७ एवं सं० १६६१ की इसकी प्रतिलिपित प्रतियां इन्हीं की परम्परा के मुनियों की उपलब्ध हैं. कुशल-लोकागच्छीय रामसिंहजी के शिष्य कवि कुशल ने सं० १६८६ सोजत में दशार्णभद्र 'चौढ़ालिया' सं० १७८६ चैत्र सुदि दूज को मेड़ता में सनत्कुमार चौढालिया 'लधु साधुवन्दना' एवं 'सीता आलोयणा' का प्रणयन किया. केशवजी यह कुँवरजी पक्ष के तीसरे और पाटानुक्रम से १२ वें आचार्य, गुणादा के विजा की पत्नी जयवन्ती के पुत्र थे. जन्म सं० फागुन वदि ५, आचार्य पद सं० १६८६ जेठ सुदि १३, गुरुवार और तदनन्तर स्वल्प समय में देहावसान. केशवजी ने कुँवर के पट्टघर श्रीमल्लजी के समय में लोकाशाह का सिलोका की रचना की. २४ पद्य की इस ऐतिहासिक कृति में लोंकाशाह और उनकी परम्परा के कतिपय मुनियों का संकेतात्मक परिचय है. खीममुनि- 'पंचमहाव्रत' 'पंचढालिया सज्झाय' के प्रणेता, खीममुनि उपाध्याय कान मुनि के शिष्य थे. खीममुनि ने अपने रचना-काल का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है पर 'जैन गुर्जर कवियो' भाग ३ पृ० १५३ पर एक अज्ञातकतृक रचना 'खिम ऋषि पारणा' का उल्लेख है, जिसका लेखन-काल सं० १७८२ है, यदि यह पारणा पंचमहाव्रत के कर्ता खीम मुनि से संबद्ध मान लिया जाय तो इन्हें सं० १७८२ के पूर्व का कवि मान लेने में कोई अनौचित्य नहीं है. खुशालचन्द--'सम्यककौमुदी चौपाई' अथवा 'अरहद्दासा चरित्र' के प्रणेता खुशालचन्द रायचन्द्र के शिष्य और पुण्यात्मा जेठमलजी के प्रशिष्य थे. सम्यक्त्व जैन-दर्शन की आत्मा है, बिना इसे प्राप्त किये जीवन शून्यवत् है ! इसी विषय को लेकर सम्यक कौमुदी चौपाई की रचना हुई है, जिसमें समकित की विशद विवेचना द्वारा जन-मानस को धर्मभावनाओं की ओर आकृष्ट किया गया है. इस चौपाई की रचना नागौर में सं० १८७६ वैशाख सुदि ३ को हुई. खेतसी-लोंकागच्छीय १३ वें पट्टधर दामोदरजी के शिष्य कवि खेता ने वि० सं० १७३२ में वैराट (मेवाड़) में 'धन्ना महर्षि के रास' का प्रणयन किया और सं० १७४५ में अनाथी ऋषि की ढालें बनाईं. खोड़ीदास-खोडाजी स्वामी-यह स्थानकवासी गोंडल संप्रदाय के साधु थे. इनका जन्म राजकोट में वीरजी की पत्नी डाही से सं० १८१२ कातिक सुदि ११ को हुआ था. सं० १६०८ आषाढ़ सुदि ११ को दीक्षा अंगीकार की और सं० १९२७ भादों सुदि ११ शनिवार को गोंडल में स्वर्गवास हुआ. खोड़ीदासजी अपने क्षेत्र के माने हुए संत और कवि थे. तत्रस्थित जैनेतर समाज पर इनका प्रभाव था. इनकी रचनाओं में जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्तों को बोधगम्य भाषा में उपस्थित करने का प्रयास परिलक्षित होता है. इनका काव्यसंग्रह दो भागों में गोंडल से प्रकाशित हो चुका है. खोड़ीदासजी की रचनाएं इस प्रकार हैं१. निरंजन पच्चीसी (सं० १६१६ आसौज सुदि १३ जैतपुर) २. तस्कर पच्चीसी (सं० १९१६ आसौज)