Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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दलसुखभाई मालवणिया : लोंकाशाह मत की दो पोथियां : १८७
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पद पर दीखती है. अधिकांश बोलों के अन्त में वे यही कहते या लिखते हैं कि बुद्धिमान् लोग इस विषय में सोचें. या विवेकी जन इस पर विचार करें. इससे यह सुस्पष्ट है कि उनके लेखन में कटुता बढ़ाने का भाव नहीं था. लोकाशाह का यह विरोध सफल हुआ है और धर्म में जो मूर्तिविरोधी सम्प्रादय खड़ा हुआ है, इसके मूल में लोकाशाह ही है, ऐसा निःसंकोच कहा जा सकता है. जैनधर्म के अनुयायियों में लोकाशाह के कारण कुछ लोग मूर्तिपूजक नहीं रहे. किन्तु जो मूर्तिपूजक रहे उनमें भी आडम्बरों का और साधुओं के आचारों में आई हुई शिथिलता का विरोध हुआ और जैनधर्म अध्यात्मप्रधान ही बना रहे, इसलिए स्वयं मूर्तिपूजक साधुओं ने भी प्रयत्न किये. जैनधर्म को मौलिक आध्यात्मिकता की ओर ले जाने का अनेक महानुभावों ने प्रयत्न किया है. उनमें लोकाशाह का भी एक विशिष्ट स्थान रहेगा, इसमें दो मत नहीं हो सकते. इतना परिचय हो जाने के बाद अब उक्त दो प्रतियों का विवरण प्रस्तुत किया जाता है. ये दोनों प्रतियां अहमदाबाद के श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर के अन्तर्गत मुनिराज श्री पुण्यविजय जी के संग्रह की हैं. (१) नं० ४१२१ लूँकानी हुंडी. ३३ बोलसंग्रह, पत्र २. इसके आरम्भ में लिखा है कि जो लोग यह कहते हैं कि हमें नियुक्ति, चूणि, भाष्य, वृत्ति, प्रकरण आदि प्रमाण रूप से मान्य हैं, उन्हें ये बातें भी मान्य करनी होगी. इस प्रकार प्रस्तावना करके निशीथचूणि में से अहिंसा आदि महाव्रतों के जो अपवाद दिये हैं उनमें से कुछ का उल्लेख किया है. जैसे कि गच्छ की रक्षा के लिए व्याघ्रादि पशु की हत्या की जाय तब भी शुद्ध अर्थात् उसे अप्रायश्चित्ती कहा है, इत्यादि. ये अपवाद निशीथचूणि के उद्देशों के क्रम से चुने हैं और बोल १ से लेकर २५ तक इसी में से हैं. २५ वें बोल के अन्त में लिखा है-"जिस निशीथचूणि में ऐसी बातें हैं वह सम्पूर्ण रूप से कैसे प्रमाण मानी जाय ? अर्थात् उनमें जो अविरोधी बातें हैं वे तो प्रमाण हैं किन्तु कोई यह कहे कि जैसी लिखी हैं वैसी ही प्रमाण मानी जाएँ, तब लोकाशाह ने संदेह उठाया है. छब्बीसवाँ बोल उत्तराध्ययन (अ. ६) की टीका में से है, जहां यह उल्लेख है कि मुनि, प्रसंग आने पर चक्रवर्ती के सम्पूर्ण सैन्य को नष्ट कर सकता है. अन्त में लिखा है कि इस विषय में बुद्धिमान् पुरुष सोचें. इसी प्रकार के अपवाद की चर्चा २७ वें बोल से लेकर ३५ वें बोल तक व्यवहारवृत्ति, प्रज्ञापनावृत्ति और आवश्यकनियुक्ति में से की गई है और प्रश्न किया है कि इस प्रकारकी बातें जिस आवश्यकनियुक्ति में हों, वह चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु स्वामी की रचना कैसे मानी जा सकती है ? और ऐसी ऐसी बातें जिन ग्रन्थों में हों उन्हें सम्पूर्ण रूप से प्रमाण कैसे माना जाय ? अतएव बुद्धिमान पुरुष इस विषय में सोचें और मूल सिद्धान्तों के ऊपर श्रद्धा करें. जिससे इस लोक और परलोक दोनों में सुख प्राप्त करेंगे. इस प्रति के अन्त में जो लिखा है उससे स्पष्ट है कि यह प्रति लोकाशाह के मत का यथार्थ निर्देश करती है. साथ ही कापी करने वाले ने अपनी ओर से वाचक को उपदेश दिया है कि प्रतिमा मानने वाले के लिए तो सर्वयुक्तिओं से पंचांगी प्रमाण है और यहां जो यह लिखा है वह केवल जानने के लिए ही लिखा है. यथा-"ए सर्व लूकामतीनी युक्ति छइ. प्रतिमा मानइ तेहने तो पंचांगो प्रमाणइ सर्व युक्ति प्रमाण छइ.' जाणवानइ हेतुइं लिखु छइ.' सार यह है कि प्रस्तुत ३३ बोल का विषय यह दिखलाना है कि मूल आगम ही प्रमाण है और नियुक्ति आदि सर्वांशतः प्रमाण नहीं हैं. यह कहना इसलिए आवश्यक था कि विपक्षी लोग लोंका के समक्ष आगमों की टीकाओं में से प्रमाण उपस्थित करते होंगे. अतएव उन टीकाग्रन्थों के प्रामाण का परीक्षण करना लोंका के लिए आवश्यक हो गया था. ३३ बोल में यही उन्होंने किया है. (२) नं. २६८६. लूकाना सद्दहिया अठावन बोल विवरण पत्र १५. इस प्रति के प्रारम्भ में हरताल लगाकर गुरु का नाम निकाल दिया है और उसके बाद—'गुरुभ्यो नमः. लूकाना सद्दहिया अनइ कर्या बोल ५८ लिखिइ छ।'है. इस प्रकार प्रारम्भ में ही लूका की श्रद्धा जिन ५८ बोलों में थी और जो उन्होंने दूसरों के समक्ष रखे थे, उसकी
मुरलिया बनर की बोल कर लिन्दि का
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