Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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कुंवर लालचन्द्र नाहटा 'तरुण'
स्थानकवासी परम्परा की विशेषताएँ
शरीर विजातीय पदार्थों के प्रवेश से विकारग्रस्त हो जाता है. यही नियम भाषा, जाति, पंथ, संप्रदाय, संस्कृति एवं धर्म पर भी चरितार्थ होता है. वातावरण में व्याप्त विजातीय तत्त्वों की प्रचुरता एवं अनंतकालीन विभावपरिणति से उद्भूत मानव-मन की प्रमादप्रियता से जब धर्म में विजातीय तत्त्व स्थान पा जाते हैं तो धर्म में पाखंड, आडंबर एवं गुरडमवाद का बोलबाला हो जाता है. धर्म का वास्तविक उद्देश्य विलुप्त हो जाता है. निःसत्त्व क्रिया-कांडों की भरमार हो जाती है, जिनपर आधारित विधि-निषेधों से मानव का मन कुंठाग्रस्त हो जाता है. धर्म के इस शव से उत्पन्न दुर्गन्ध से समस्त वातावरण विषम और विषमय हो जाता है. ऐसे समय में या तो उसमें क्रांति होती है अथवा वह विनष्ट हो जाता है. जैन-धर्म भी इसका अपवाद नहीं है. भगवान् महावीर ने जिन रीति-रिवाजों या क्रियाकाण्डों का विरोध किया था उनके कुछ काल पश्चात् वे ही चोर दर्वाजों से इसमें प्रवेश करने लगे. जब धीरे-धीरे जैन-धर्म में विकार अत्यधिक बढ़ गये, तो उसमें क्रांति के लिये पूरी-पूरी पीठिका तैयार हो गयी. ऐसे ही समय में अहमदाबाद के श्रीमान् लोकाशाह नामक महान् प्रतिभासंपन्न, तेजस्वी, विद्वान् श्रावक को संयोगवशात् आगमअवलोकन का अवसर उपलब्ध हुआ. उनके सुन्दर अक्षरों पर मोहित होकर ज्ञानजी नामक यति ने उन्हें प्रतिलिपि करने के हेतु शास्त्र दिये. सुज्ञ श्रावकजी ने उन शास्त्रों की दो-दो प्रतिलिपियाँ की. एक-एक प्रति यतिजी को दी तथा एक-एक अपने पास सुरक्षित रखी. तीव्र मेधावी और परम जिज्ञासु तो वे थे ही, यतियों एवं पंडितों के विशेष संपर्क से आगमों में उनकी गति भी थी; फिर मिल गया उन्हें प्रतिलिपि करते समय आगमों के गहन अध्ययन, अनुशीलन और अनुसंधान का अवसर ! फिर क्या था, उनकी प्रतिभा निखर उठी. उनके ज्ञानचक्षु खुल गये. उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि जैन-धर्म में प्रविष्ट आडंबर और पाखंड-प्रपंच हटाकर शुद्ध जैन-धर्म का प्रचार करूँगा. अपने भगीरथ-प्रयत्नों से उन्होंने अपने जीवनकाल में ही बहुसंख्यक व्यक्तियों को अपना अनुयायी बनाया. वर्तमान युग में भगवान् महावीर द्वारा संस्थापित
और श्रीमान् लोकाशाह द्वारा प्रचारित जैन धर्म की मौलिक धारा स्थानकवासी परम्परा के नाम से प्रख्यात है. यह परम्परा जैन-धर्म की प्राचीन गरिमा से संयुक्त तो है ही, आधुनिकता से भी समन्वित है. इसकी तीन मौलिक विशेषताएँ हैं :(१) मूर्तिपूजा की अनुपादेयता (२) मुखवस्त्रिका की अनिवार्यता (३) आगमोक्त्त आचार का परिपालन. (१) मूर्तिपूजा की अनुपादेयता-जैसा कि भारत के माननीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलालजी नेहरू ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक 'हिन्दुस्तान की कहानी' में सिद्ध किया है, मूर्तिपूजा का मूल स्रोत युनान है. भारत में बुद्ध के बचे हुए स्मृतिचिह्नों के आदर मान-सम्मान ने आगे जाकर उनकी और बुद्ध की मूर्तियों की पूजा को जन्म दिया. इसी का अनुकरण अन्य संप्रदायों ने किया. फारसी में मूर्ति के लिये प्रयुक्त शब्द 'बुत' बुद्ध का अपभ्रंश ही है, यह इसका प्रमाण है. जैन-धर्म में महावीर के बहुत काल पश्चात् मूर्ति-पूजा का प्रवेश हुआ. प्रारम्भ में केवल स्मारक आदि बने. फिर धीरे
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