Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डॉ० श्रानन्दप्रकाश दीक्षित, एम० ए० (हिन्दी), एम० ए० (संस्कृत), पी-एच० डी०, रीडर, हिन्दी-विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर. कविवर्य अमीऋषिजी और अमृतकाव्यसंग्रह
'अमृत-काव्यसंग्रह' पण्डितरत्न मुनि श्रीअमीऋषिजी की कई काव्य-रचनाओं का संग्रह है. संग्रह के अन्तर्गत मुनिवर्य द्वारा रचित १ शिक्षा-बावनी, २ सुबोध-शतक, ३ विविधबोध-बावनी, ४ चौरासी उपमायुक्त मुनि-गुण-बत्तीसी, ५ एकल विहारी मुनि हितशिक्षा चालीसा, ६, शारदा विनय, ७ तीर्थकर परिचय, ८ श्री त्रिलोकाष्टक, ६ हिंसामति हितशिक्षा, १० निश्चय-व्यवहार-चर्चा, ११ प्रश्नोत्तरमाला तथा १२ कतिपय समस्यापूर्तियाँ और अनेक प्रकीर्णक संगृहीत हैं. संगृहीत रचनाओं के अतिरिक्त श्री अमीऋषिजी की और भी रचनाओं का पता चलता है. मुनि श्रीमोतीऋषिजी ने ऐसे प्राप्त ग्रंथों की संख्या २८ बताई है और निम्नलिखित रूप में उनकी तालिका प्रस्तुत की है:१ स्थानक निर्णय, २ मुखवस्त्रिका निर्णय, ३ मुखवस्त्रिका चर्चा, ४ श्रीमहावीरप्रभु के छब्बीस भव, ५ श्रीप्रद्युम्न चरित ६ श्री पार्श्वनाथ चरित, ७ श्री सीताचरित, ८ सम्यक्त्व महिमा, ६ सम्यक्त्व निर्णय, १० श्री भावनासार, ११ प्रश्नोतर माला, १२ समाज स्थिति दिग्दर्शन, १३ कषाय कुटुम्ब छहढालिया, १४ जिनसुन्दरी चरित १५ श्रीमती सती चरित, १६ अभयकुमारजी की नवरंग लावणी, १७ भरतबाहुबली चौढालिया १८ अयवंता कुमार मुनि-छह ढालिया, १६ विविध बावनी, २० शिक्षा बावनी, २१ सुबोध शतक. २२ मुनिराजों की ८४ उपमाएँ, २३ अम्बड संन्यासी चौढालिया, २४ कीतिध्वज राजा चौढालिया, २५ सत्यधोषचरित, २६ अरणकचरित, २७ मेघरथ राजा का चरित २८ धारदेवचरित. उक्त तालिका में ११, १६, २०, २१, तथा २२ संख्या वाले नाम अमृतकाव्य-संग्रह के क्रमशः ११, ३, १, २, तथा ४, पर दिये गये नामों से मिलते-जुलते हैं, अतएव इन पांच रचनाओं को कम कर दें तो प्रथम तालिका में प्रश्नोत्तरमाला तक के ११ तथा द्वितीय तालिका में से केवल २३ अर्थात् कुल ३४ रचनाओं तथा इनके अतिरिक्त अनेकानेक समस्यापूर्तियों तथा प्रकीर्णकों का श्रेय मुनिवर्य श्रीअमीऋषिजी को दिया जायगा. इन रचनाओं का अनेक दृष्टिबिन्दुओं से वर्गीकरण किया जा सकता है, वह इस प्रकार-इन्हें नीति, साम्प्रदायिक वर्णन, चरित वर्णन आदि जैसे कई वर्गों में रखा जा सकता है. संग्रह-शैली-भेद से भी इनके अनेक रूप, यथा, अष्टक, चालीसा, बावनी, शतक, आदि मिलते हैं. छन्दभेद की दृष्टि से विचार करें तो केवल अमृत-काव्य-संग्रह में संग्रहीत रचनाओं में ही दोहा, कवित्त, सवैया, सोरठा,पद्धरी, हरिगीतिका, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित, मालिनी आदि छन्दों का सुचारु निर्वाह मिल जायगा. सवैया और कवित्त पर तो इनका विशेष अधिकार जान पड़ता है. प्रायः अष्टक आदि के नाम से प्रस्तुत की जाने वाली रचनाओं में निश्चित रूप से सदैव केवल गिनती के ही छन्द नहीं रहते. श्रीअमीऋषिजी की रचनाओं में भी इसी परम्परा के दर्शन होते हैं. मंगलाचरण और समाप्तिसूचक छन्दों को छोड़ भी दें तो भी मूल-विषय से सम्बन्धित छन्दसंख्या में कहीं अधिक ही हैं. छन्द और शैली की ऐसी विविधता के साथ-साथ विषय की विविधता और उसके कारण जीवन के विशाल निरीक्षण-परीक्षणके प्रति ऋषिजी की सजगता जितनी ही सराहनीय है, उतनी ही साहित्य-शास्त्रकी चमत्कारक-प्रणालियों का ज्ञान और उन पर उनका अधिकार भी प्रशंसनीय है. संत, दार्शनिक और भावुक कवि प्रायः चित्र-काव्य की रचना में प्रवृत्त होते नहीं दिखाई पड़ते. कवियों के बीच भी जिन्होंने अपने काव्य में आलंकारिक-चमत्कार को बहुत बहुमान दिया, उन्होंने भी चित्र-काव्य-रचना की ओर अपनी रुचि नहीं दिखाई. जिन्हें शास्त्र-सम्पादन करना था, उनमें से भी
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