Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१७८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
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मयता के साथ-साथ उपदेश और व्यंग के लिये स्मरणीय हैं. उदाहरणार्थ नीचे दो समस्यापूत्तियाँ दी जाती हैं, जिनमें पहली शब्द-योजना के लिये और दूसरी उपदेश और चमत्कार-रक्षण के लिये प्रमाण है
१-विधवा सिर कीध सुहाग को टीको।
"कुल कान कटा करिके कुलटा अधरामृत बंद चटा पर पीको, ठारि श्रटा तन धारि छटा करि बंक कटाच्छ कटा जन ही को। लाय वटा निज नेम घटा उलटा करि काज हटा सुमती को, हे धिक वेश पियूष गुणी विधवा सिर कीध सुहाग को टीको।" २-लोह के सुपिंजर में पारस पर्यो रह्यो ।
"पाय नरदेह नेह कीनो ना धरम साथ, पातक के काज दिन रैन ही अर्यो रह्यो, सुगुरु की केन हितकारी उर धारी नाहि, अज्ञान मिथ्यात्व को विकार ही भयो रह्यो । जीव पुदगल को स्वरूप ना पिछान्यो कर्मी, मन को मनोरथ सो मन में धर्यो रह्यो,
अमीरिख बसन लपेट्यो निज गेह सदा, लोह के सुपिंजर में पारस पर्यो रह्यो।" कवि-प्रतिभा का संचरण जिस प्रकार कल्पना, भावुकता और वैचित्र्य-संपादन के हेतु होता है और शब्द-योजना जिस प्रकार भावावेगों, क्रियाओं, अन्तरानुभूतियों के चित्र और मजमून बांधने में प्रयुक्त की जाती है, श्रीअमीऋषिजी की कवि-प्रतिभा का संचरण और उनकी शब्द-योजना की प्रयुक्ति दोनों ही उनके उद्देश्य के कारण वैसी नहीं हैं. श्री अमीऋषिजी का उद्देश्य तो जीव और जगत् को उनके वास्तविक और सही रूप में उपस्थित करके मोहान्धकार में फंसे हुए मनुष्य का उससे उद्धार करना और उसके लिये उसे मार्ग दिखाना था. हास-विलास आदि की नाना गतियों में न वे स्वयं मग्न हुए और न किसी दूसरे को ही उस ओर ले गये. निर्वेद के द्वारा जिस शान्त रस को उपस्थित करना उनका उद्देश्य था, उसी की सिद्धि की ओर उन्होंने ध्यान दिया और उसमें भी सफल हुए. स्वाभाविक रूप से उनकी वाणी सहज मार्ग से होकर ही चली और उन्होंने जिस निर्व्याज-भाव से अपने उद्गार प्रस्तुत किये उनमें प्रासादिकता और अनेक व्यवहृत भाषाओं के शब्दों का समावेश भी हो गया. राजस्थानी के विभिन्न भेदों में तो उन्होंने कविता की ही, अरबी-फारसी और अंग्रेजी के प्रचलित शब्द भी उनकी पंक्तियों में स्वयमेव आकर बैठ-से गये. इन शब्दों के आ जाने से ब्रजभाषा के सौन्दर्य की कहीं कोई हानि नहीं हुई, बल्कि उल्टे अर्थ-सौकर्य और प्रवाह में सहायता ही मिली. विदेशी शब्दों में केवल दम, ऐश, कदम, हुश्यार, मौज, कैद, रुवारी, तैयार या त्यार, जरूर, मौत, खुराक, फरमाई, खबर, दौलत, खलक, हाजर, हजूर, जुलम, गरीब, गरज, खफा, सफा, कानून, मजमून, जैसे शब्दों का ही प्रयोग आपने नहीं किया है, अंग्रेजी के 'नम्बर' का प्रयोग भी निःसंकोच कर दिया है. किन्तु इन शब्दों का मिश्रण सर्वत्र या बाहुल्य के साथ नहीं है. शब्दों को अपने उच्चारण के या मात्रा के अनुकूल बना लेने में तो आप कुशल हैं ही नये-नये शब्दों को गढ़ लेने में भी प्रवीण हैं. इंद्रधनुष का इन्दर धनुष्य, शोभा से शोभादार, निकम्मी या निष्काम से नीकाम, सदैव से सदीव, सजा से सजावार, जैसे शब्द भी उनके यहां मिलेंगे और मात्रा-लोप, आगम या परिवर्तन से होने वाले विकार भी उनके शब्दों में बहुलता से दिखाई देंगे. अति का अती, मित्र का मित, पीड़ा का पीड, अग्नि का अगन, शय्या या सेज का सिज्जा, चिंता का चित्या, भांति का भांत,ताको का ताकू, ऊपर का उपर, ममता का ममत जैसे प्रयोग उनकी रचना में अति साधारण से ही समझने चाहिये. देशज प्रयोग भी प्रायः दिखाई पड़ते हैं. किन्तु इन प्रयोगों से काव्यपाठ और काव्यार्थ-बोध में सहायता ही मिली है, बाधा उपस्थित नहीं हुई. वस्तुतः श्रीअमीऋषिजी की उक्तियाँ इतनी सहज और उपदेश इतने सीधे हैं कि उनकी भाषा भी उसी ढाल में ढल गई है. भाषा-परिष्कार और शाब्दिकएकरूपता की ओर उनका ध्यान नहीं है, भाव या विचार की निश्छल अभिव्यक्ति ही उनका उद्देश्य है और इसी दृष्टि से उनकी भाषा का विचार होना भी चाहिये. श्रीअमीऋषिजी के कवि-रूप पर छाए हुए उनके संत रूप को ही उनका वास्तविक रूप मानना चाहिये और जहाँ-जहाँ इन दोनों रूपों का सम्मिलन दिखाई देता हो, वहाँ उनकी काव्य-प्रतिभा की भी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करनी चाहिये.
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