Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१८८२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
लखमसी का सहयोग
तत्कालीन एक सुसंपन्न व प्रख्यात श्रावक अनहिलपुर पाटण निवासी श्रीलखमसी भी लोंकाशाह को परखने आये. बात इन्द्रभूति व महावीर की-सी हुई, लखमसी ने अपने प्रश्न रखे. लोकाशाह ने शास्त्रसम्मत युक्तियों से सुस्पष्ट समझाया. लखमसी पूर्ण प्रभावित हुए. फिर खूब विचारविमर्श, गहरा शंका-समाधान और अंततः लोकशाह के घनिष्ठ सहयोगी ! सह धर्मप्रचारक !
क्रांति की व्यापकता
अब तो शक्ति एकदम द्विगुणित फिर तो अरहटवाड़ा, पाटण, सूरत आदि चार संघों के संघपति भी लोंकाशाह की विचारधारा के कायल बने. शनैः शनैः लोकाशाह की धर्मक्रांति की लपटें फैलती गईं. सत्य का बल प्रबल होता है. कितने आश्चर्य का विषय है कि उस युग में बिना किसी रेल, तार, प्रेस, प्लेटफार्म, प्रचार प्रसार यंत्रों के मात्र सत्य, दृढ़ता व दूरदर्शिता से लोंकाशाह के ये सत्य सिद्धान्त भारत के कौने-कौने में फैल गये.
क्रांति की अंतिम श्राहुति
लोकशाह ने आगमानुसार साधुमार्ग का पुनरुद्योत किया. वे स्वयं तो दीक्षित नहीं हुए क्योंकि वृद्ध हो चुके थे. उनके साथियों ने दीक्षित होने की प्रार्थना भी की थी. पर लोकाशाह बहुत दूर की सोचने वाले थे. वे जानते थे कि आचरण की सर्वांगसुंदरता ही अभी अपेक्षित है. उनके साथियों ने स्वयं दीक्षित होने की जब अत्यधिक भावना बार-बार व्यक्त की तो उन्हें सच्चे संयम का विकट स्वरूप भली भांति समझाया. फिर भी उनकी दृढ़ता व प्रबल इच्छा देखी तो लोकाशाह ने जिन धर्म के उद्योत के लिये उनकी भावना का स्वागत किया और उनके उपदेश से लखमसी जगमाल आदि ४५ व्यक्ति एक साथ भागवती दीक्षा से दीक्षित बने. लोकाशाह की क्रांति की यह चरम परिणति थी. इन ४५ व्यक्तियों में से कई बड़े-बड़े संघपति व लक्ष्मीपति थे. इनके संयम, तप, तेज का खूब प्रभाव पड़ा.
महत्त्व एवं मूल्यांकन
इस प्रकार लोकाशाह ने धर्म के नाम पर प्रचलित पाखंड का पर्दाफाश किया. उन्होंने क्रांति का नव्य भव्य संदेश दिया. सत्यमार्ग की प्ररूपणा हुई. धर्म का पुनरुद्धार हुआ.
वह धार्मिक क्रांति का सुप्रभात कितना आह्लादकारी था जब कि शताब्दियों की अंधकारमय रात्रि में सुषुप्त जनमानस ने चेतना की प्रथम अंगड़ाई लेकर क्रांति ज्योति के सर्वप्रथम अभिनव दर्शन किये. यह नूतन मंगल प्रभात था. सत्यधर्म का सूर्य चमक रहा था. उसके नव्य दिव्य प्रकाश में रूढिवादिता - रात्रि का आडम्बर-अंधकार एवं शैथिल्य के उलूक न जाने कहाँ विलुप्त हो गये ! जन-मानस का हृदय - कमल प्रफुल्लित था.
धर्मक्रांति की वीणा बजाने वाले, सत्य का शंख फूंकने वाले, महान्, निडर-दूरदर्शी, वीर क्रांतिकारी लोकाशाह तुम्हें हमारा भावपूर्ण शत-शत वन्दन अभिनन्दन है !
लोकाशाह की यह क्रांति विलक्षण है. ज्ञान दर्शन चारित्रप्रधान 'स्थानकवासी समाज' इसी वीर पुरुष की देन है. उस विकट अंधकार के अटपटे जड़युग में गुण-पूजा की सबल स्थापना कितनी उत्साहपूर्ण व आशा-प्रद घटना है. हम कल्पना तक नहीं कर सकते. अगर लोकाशाह ने यह धार्मिक क्रांति न की होती तो आज क्या होता ? हमारा कर्तव्य
भारत के लूथर लोकाशाह की क्रांति का मूल्यांकन सरल नहीं है. पर दुर्भाग्य से हमारे समाज में इतिहास के लेखन व प्रचार एवं प्रसार की भावना न होने से एक ऐसा जबर्दस्त क्रांतिकर अतीत के अंधकार में आज भी विलुप्त है. नहीं तो क्या इस सुधारक का महत्त्व मध्यकालीन किसी भी धर्म-सुधारक से कम है? इस महान् क्रांतिप्रणेता का आद्योपांत विशद
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