Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१७६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय म्लानता की अनुभूति जाग्रत करने वाला चित्र अंकित कर दिया है, 'फुलाना' तथा 'कुमलाना' शब्द जैसे यहाँ आकर सार्थक हो गये हैं :
"मन में विचार नर, आउखो अलप तामें, करे अति प्राश न भरोसा पल दम का, पल में पलट जाय, इन्दरधनुष जिम, संध्या का फुलाना, कुमलाना ज्यों कुसुम का। कोमल शरीर सुख ऐश में लोभाय रह्यो निकसत दम ढेर होयगा भसम का,
जम डर पान के सयाने अमीरिख कहे, धार ले शरण चित्त, प्रभु के कदम का।" -शिक्षा बावनी। प्रबुद्ध व्यक्ति को समझाना सरल है, मूढ़ या हठी को उपदेश देना कठिन. संतों ने बराबर इस बात का अनुभव किया है और इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मूर्ख को बहुत समझाने का प्रयत्न न करे. साथ ही उनका अनुभव यह भी है कि किसी व्यक्ति का स्वभाव बाहरी उपचारों से नहीं बदला जा सकता. “कहा होत पयपान कराये, विष नहिं तजत भुअंग." सूरदास ने इस प्रकार का छन्द लिखकर इसी धारणा को पुष्ट किया है. श्रीअमीऋषि का अनुभव, श्रुत और पठित ज्ञान भी इसी के अनुकूल बैठा, अतएव उन्होंने भी बड़े ही सरल शब्दों में इस बात का निर्देश कर दिया है:
"सीख नहीं दीजे हठग्राही मूढ प्राणिन कू, सार नहीं होवै जैसे पानी के मथाए से, खर का चन्दन-लेप, मुकुट भूषण तन, होवत निकाम जैसे अोस बिन्दु बाए से । मर्कट के गले हार सार शोभादार बहु, तोरी के देवत फेंक फंद जानी काये से,
अमीरिख कहे नहीं माने उपकार मन, होवत है बैरी बात हित की बताए से। -शि० बा० । सूरदास जी का 'खर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूषण अंग' भी आ गया और पानी को मथाए' 'ओस बिन्दु बाएसे' के द्वारा मुहावरों का निर्वाह ही नहीं हुआ उनके द्वारा निस्सारता और असंभाव्यता का अविलम्ब अनुभव भी हो गया. उपदेश के साथ कवित्व का मेल प्रशंसनीय है, विशेषतः इसलिये भी कि ऐसा केवल एकाध स्थल पर ही नहीं हुआ है. अधिकांशतः हुआ है. संसार की असारता और नश्वरता का चित्र खींचते हुए निम्नलिखित दोनों छन्दों में मुनि जी ने इसी कौशल का परिचय दिया है, साथ ही प्रवाहमय शब्द-योजना का निर्वाह करके उक्ति को प्रभावपूर्ण बना दिया है :
"ढील नहीं कीजे गुरुदेव के वचन सुणि, छीजे छिन-छिन अायु, अंजली के पाणी ज्यू, देह बलहीन होय, आई है जरा नजीक, नदी पूरवेग जैसे, बीते है जवानी ज्यू। कालदूत आय तेरे शीस पर छाय रह्यो, देह की ममत्व नहीं छोड़े अभिमानी ज्यू, अमीरिख कहे पाप बांध के सिघायो जब, जम हाथ नरक में पचे,नाज धानी ज्यू। —शि० बा.
अथवा, "आयु है अथिर जैसे अंजली के नीर सम, दौलत चपलता ज्यों दामिनी झलक में ।
यौवन पतंग रंग, काया है नीकाम अति, वार नहिं लागे ओस बिन्दु की ढलक में, सुपन समान यह संपदा पिछान मन, सरिता को पूर ढल जाय ज्यों पलक में।
कहे अमीरिख जग सुख है असार धार, सुकृत सदीव यही सार है खलक में ।" -सुबोध शतक नारी-निन्दा संतों का प्रिय विषय रहा है. कभी-कभी बिहारी जैसे शृंगारप्रिय कवियों ने भी 'छवि-छायाग्राहिनी' तिय से बचे रहने की ओर संकेत कर दिया है, अन्यथा उनकी प्रवृत्ति' 'हाँसी-फाँसी डालनेवाली' नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करने की ओर ही अधिक रही है. तथा, बिहारी का कथन है:
डारे ठोढ़ी-गाड़, गहि नैन-बटोही, मारि,
चिलक-चौंध में रूप-ठग, हाँसी-फाँसी डारि । अमीऋषिजी ने बिहारी के कथन का निर्वाह करते हुए भी उसकी योजना प्रशंसा के लिये नहीं, उसकी निन्दा और
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