Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्रीलक्ष्मीचन्द्रजी महाराज
मुनि रूपचन्द्रजी : एक खोज-पूर्ण आलेख
हिन्दी व राजस्थानी साहित्य के विकास और संरक्षण में जैन मुनियों का विशिष्ट योग रहा है. जैन मुनियों ने अपनी अनुभूति व्यक्त करने का माध्यम, लोकभाषा को बनाकर, न केवल जनसाधारण को मूल्यवान् दार्शनिक व धार्मिक विचारों से परिचित कराया अपितु प्रकारान्तर से लोकभोग्य या जन मंगलकारी साहित्य की भी सृष्टि की, जिससे शताब्दियों तक मानवता अनुप्राणित होती आ रही है. भगवान् महावीर और बुद्ध ने भी आत्मानुभूति को ऐसी ही बोघगम्य भाषा में व्यक्त करना समुचित समझा कि सामान्य जन भी सरलता से उच्चतम विचार आत्मसात् कर जीवन के प्रशस्त पथ का अनुसरण कर सके. आज तक अधिकांशतः साहित्य और इतिहास-समीक्षकों ने इस प्रकार की मंगलमय रचनाओं को केवल साम्प्रदायिक कृतियां घोषित कर उन्हें धार्मिक जगत् तक ही सीमित माना है जबकि भारतीय नैतिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इन का गौरव किसी भी दृष्टि से कम नहीं है. भले ही लाक्षणिक दृष्टि से ऐसी कृतियों का साहित्य में अन्तर्भाव न होता हो किन्तु मानवता के मूल्यांकन एवं उसे उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करने में इन रचनाओं का निर्विवाद महत्त्व है. आज के शोधप्रधान युग में हिन्दी साहित्य और भाषा के मौलिक महत्त्व पर प्रकाश डालने वाले प्रचुर प्रयत्न हुए हैं. पूर्वाजित एवं संचित संपत्ति-हस्तलिखित ग्रन्थों का अन्वेषण किया जा रहा है. और दिनानुदिन नव्य भव्य पुष्प माता शारदा के ज्ञानमन्दिर से समुपलब्ध होते ही रहते हैं. प्रसंगत: यह सूचित कर देना आवश्यक जान पड़ता है कि अब भी बहुत-से ऐसे स्थान हैं जो अन्वेषण की प्रतीक्षा में हैं. कई कवि ऐसे हैं जिनका उल्लेख अद्यावधि प्रकाशित किसी भी हिन्दी साहित्य और भाषा के इतिहास में नहीं हुआ है. जब तक प्राचीन ज्ञानागारों का व्यापक रूप से सर्वेक्षण नहीं हो जाता तब तक हिन्दी का इतिहास अपूर्ण रहेगा. राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा में जैन परम्परा शताब्दियों से मूर्धन्य रही है. जैन सन्तों ने अपने लौकिक एवं लोकोत्तर साधनामूलक विचारों से जनमानस को प्रभावित किया है. तथ्य तो यह है कि एक समय था जब आचार्य हरिभद्र सूरि जैसे बहुश्रुत मनीषी ने सम्पूर्ण पश्चिम भारत को संस्कृति के सूत्र में बांध रखा था जिसकी परम्परा
आंशिक परिवर्तन के साथ आज भी विद्यमान है. कालिक परिस्थितियों के अनुसार वह परम्परा कई सम्प्रदायों में विभक्त होने पर भी मौलिकदृष्ट्या एक है. जिस प्रकार हिन्दी के भक्त कवियों में सगुण और निर्गुण धाराएँ प्रवर्तित हैं उसी प्रकार जैन परम्परा में भी दोनों धाराएँ समान रूप से प्रचलित रही हैं. यहाँ निर्गुण परम्परावादी सम्प्रदाय का उल्लेख विवक्षित है, जिसने राजस्थान के जनमानस को उल्लेख्य रूप से प्रभावित कर साहित्य-सृष्टि की है. हमारा तात्पर्य स्थानकवासी सम्प्रदाय से है. यह परम्परा साधना में बाह्याडम्बरों को महत्त्व नहीं देती. शुद्ध ज्ञान और चारित्र के प्रति नैष्ठिक भावनाओं को जीवन में साकार करना ही इसका लक्ष्य रहा है. आत्मोत्थान के लिए वह किसी ऐसे निमित्त को महत्त्व नहीं देती जो साधक को
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