Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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Jain
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१४६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ प्रथम अध्याय
मुनि-दर्शन के लिए राजा-महाराजा अकेले नहीं जाते थे. वे शोभा यात्रा के साथ सज-धजकर जाते थे. देवकी नेमिनाथ को वन्दना करने जा रही है. उसने शानदार रथ सजाया है. वह बहुत ही हलका है. और चार पहियों वाला है चारों ओर मोतियों की जाली लगी हुई है.' उसमें जुते हुए बैलों का क्या कहना ? दोनों की समान जोड़ी है. उन पर भूल सुशोभित हैं. उनके सींगों में 'राखड़ी', गले में रजतघंटिकायुक्त स्वर्ण-श्रृंखला और सींगों पर सोने की खोल, रेशम की मृदु 'नाथ' नाक में पड़ी है ताकि उन्हें पीड़ा न हो. २
दीक्षा वर्णन में वर्चीतप का दान देने का, लोच करने का प्रायः वर्णन किया गया है.
वस्तु रूप में जो वर्णन आये हैं उनमें कुछेक बहुत ही सुन्दर बन पड़े हैं, जैसे रथ-वर्णन भाव-रूप में, जिन मनोवृत्तियों की अतुल गहराई में पैंठकर कवि ने चित्रण किया है, वह प्रभावोत्पादक और सरस बन पड़ा है. कवित्व का स्फुरण इन्हीं स्थलों पर दिखाई देता है.
जैन संत कवि की काव्य-कला का मूल्यांकन करते समय हमें लौकिक-काव्य को परखने की प्रचलित कसौटी से कुछ भिन्न कसौटी अपनानी होगी. तभी हम उसके साथ ठीक-ठीक न्याय कर सकेंगे. जैन संत कवि की मूल चेतना लौकिक-सुख से प्रेरित प्रभावित न होकर लोकोत्तर आनन्द से संचरित होती है. इसीलिए प्रायः इन कवियों ने संसार की नश्वरता और असारता का वर्णन प्रभावोत्पादक ढंग से किया है.
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कवि जयमलजी ने इन कथाओं के माध्यम से भोगपरक जीवन की निस्सारता और योगपरक संयमनिष्ठ जीवन की श्रेष्ठता प्रमाणित की है. कमलावती के माध्यम से उन्होंने कहलाया है
रतन जड़ित हो राजाजी पिंजरो, सुवो तो जाणे छेद
इसड़ी पण हूँ थांरा राज में, रति न पाऊ आन्द ॥
- पृ० १६४ ।।
राजा प्रदेशी भी केशी श्रमण से सभी शंकाओं का समाधान पाकर इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि
कुण माता ने कुण पिता, कुण स्त्री प्रिय भाय रे । हुवे दुषमण कपड़ा डील रा, जब करम उदय हुवे आय रे ॥
अतः सुख का एक ही रास्ता है
हस्ती जिम बंधन खोदने, आपो वन में सुखे जाय। यूं कर्मबंधन तोड़ी संजम ग्रहां - होस्यां ज्यूं सुखी मुगत मांय ॥
-पृ० १६५
पर यह संयम मार्ग सरल नहीं है 'कृपाण की धार के समान' दुस्तर है. इसकी कठोरता, भयंकरता और उग्रता का वर्णन देखिये
हाथों में कांकण सोभता, कंठे नवसर हार ।
पगे नेवर दीपता, जाणे देवांगना उणिहार ॥१४॥ पृ० ३२७
१. रथ हलको घणो बाजणो, वले च्यार पेड़ा रो जाण । अशुद्ध शब्द करे नहीं,, लागे लोकां ने सुद्दा ||३|| हलवा काष्ठ नो भू सरो, चले चोड़ा पेड़ा जोत ।
मोत्यां री जाली लग रही, छती शोभा को उद्योत ॥४॥ पृ० ३२६
२. बलदां रे भूलज सोभती, नाके नथ रसाल रे ।
राखड़ी सींग में सोमती. गल वांधी गुघर-माल रे ॥६॥
सोना री गले में सांकली, रूपा से टोकरियो जाए रे ।
सोना री खोली सीग में, दोय इसड़ा बलदज आण रे ||१०||
कमल रो सं हे सेहरो, लटके सीगारे मांय रे ।
नाथ सोने रेशम री भली, तिणसूं नाक दोरो नहीं थाय रे ॥११॥ पृ० ३२६-२७
Lucy
- पृ० २६०
2000
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