Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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RAKERNMKMANKRAMRAA
१४० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय .... जयमल्लजी ने धर्मप्रचार करते समय अपने नये क्षेत्र भी बनाये. बीकानेर ऐसा ही एक क्षेत्र था. आप की पहुँच के पहले बीकानेर में स्थानकवासियों का कोई प्रभाव नहीं था. संभवतः ये पहले सन्त थे जिन्होंने बीकानेर में जाकर स्थानकवासी धर्म की ज्योति प्रज्वलित की. इस धर्माभियान में इन्हें अनेक परीषहों का सामना करना पड़ा. बीकानेर जाने पर उन्हें प्रवेशद्वार पर ही यह कह कर रोक लिया गया
बीकानेर है क्षेत्र जत्यों का नहीं थारो, पग फेर ।
जावो जल्दी पाछा जिससे हो जासो तुम खैर ॥' संत की मर्यादा के कारण ये उलटे पाँव लौट पड़े और 'छतरी तलावरी पाल' पर एक कुंभकार के यहाँ आठ दिन तक रहे. अन्तिम दिन आपकी श्रद्धालु श्राविका रामकंवर बाई को जब इस घटना का पता लगा तब उसने प्रतिज्ञा की कि "जब तक पूज्यश्री नगर में पदार्पण नहीं करेंगे तब तक मैं अन्न-जल न लूंगी. उसके दोनों पुत्रों का प्रतिदिन मां के साथ ही भोजन करने का नियम था. मां को इस प्रकार चिन्तित देखकर उन्होंने तात्कालिक बीकानेर नरेश गजसिंहजी से विशेष आज्ञापत्र प्रचारित करवा कर पूज्यश्री को नगर में प्रवेश कराया. स्वयं गजसिंहजी जयमल्लजी के धर्मोपदेश से प्रभावित हुए और उन्हें एक माह तक अपने महल में ठहराया. उदयपुर के महाराणा रायसिंहजी (द्वितीय) नागौर अहिपुर के राजा बखतसिंहजी भी इनके सम्पर्क में आकर प्रभावित हुए. कई ठाकुर और सरदार भी जयमल्लजी के व्यक्तित्व और चारित्रिक गुणों से प्रभावित थे. पीपाड़ से जोधपुर विहार करते समय आप मध्यवर्ती गांव 'बुचकला' में ठहरे. वहाँ के ठाकुर के यहाँ गोचरी गये, जहाँ नौकर ने मना कर दिया. ये उलटे पांव लौट पड़े. ठाकुर को पता चला तो उसने नौकर को बुरा-भला ही नहीं कहा वरन् स्वयं दिन भर आचार्यश्री की सेवा करते हुए भविष्य में आखेटचर्या न करने की प्रतिज्ञा की. इसी प्रकार पोकरण के ठाकुर देवीसिंहजी चांपावत को भी शिकारवृत्ति से विमुख किया. देवगढ़ के जशवंतराय और देलवाड़ा के राव रघु इनका उपदेश सुनकर धर्मानुरागी बने. जयमल्लजी आगमों के विशिष्ट ज्ञाता थे. एक बार पीपाड़ में एक पोतियाबंध से आपका शास्त्रार्थ हो गया. उसका कहना था कि इस काल में महावीर ने मुनिवृत्ति का निषेध किया है. आपने भगवती सूत्र के आधार पर शंका-समाधान किया." व्यक्तित्व-जयमल्लजी का व्यक्तित्व मधुर और प्रभावशाली था. उनकी आंखों में तेज, स्वभाव में सरलता, हृदय में करुणा और वाणी में ओज था. कठोर से कठोर प्राणी भी इनके सम्पर्क में आकर करुणाशील बन जाता था. ये सच्चे अर्थों में 'धर्म-पथ के दीप-स्तंभ थे'. बाधाओं को हँसते हुए सहन करना इनका स्वभाव बन गया था. 'तपोनिधि संयम-शुचिता
१. पूज्य गुणमाला : पृ० १२. २. इनका शासनकाल सं० १८०२ से १८४४ तक रहा.
-बीकानेर राज्य का हतिहास : पहला भाग, पृ० ३२३-५८-श्रीझा. ३. पूज्य गुणमाला : पृ० ६१-६८. ४. वही : पृ० १०३. ५. वही: पृ० ८८. ६. वहीं : पृ०६१. ७. वही : पृ० ७८. ८. पूज्य गुणमाला : पृ० १०३ ६.१६ वीं सदी से पोतिया बंब की एक परम्परा चली है. ये श्रावक होते हैं पर साधु के समान उपाश्रयों में बैठकर शास्त्र का पठन-पाठन
करते हैं, घरों से भिक्षा लाते हैं, खुले सिर और नंगे पांव चलते हैं. देखो-पोतियाबन्ध परम्परा पर एक दृष्टि, गजेन्द्रमुनि, जिनवाणी:
अगस्त १९६०, पृ० १६७-२०० १०. पूज्य गुणमाला: पृ०५८-६०
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