Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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2003030
विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : ७६ आपकी पुण्य-प्रेरणा का ही शुभ परिणाम था. जयपुर में आपने एक वर्षावास भी उपाध्यायजी महाराज के स्नेहवश ही किया था. मुझ जैसे एक अकिंचन व्यक्ति पर भी आपका अत्यंत स्नेह था. स्नेह की अपार सम्पत्ति, आपसे पाकर मैं तब भी धन्य था, और आज भी अपने आपको भाग्यशाली मानता हूँ. मैं आपके उन असाधारण गुणों पर मुग्ध हूँ जो अन्यन्त्र दुर्लभ हैं. बड़प्पन के भार को ढोनेवाले बड़ों की आज भी कमी कहाँ है ? परन्तु दम्भ-रहित होकर जीवन जीने की कला आपसे कोई सीखे. भीनासर सम्मेलन में मंत्री-पद पाकर भी आपने कभी उसका अहंकार नहीं किया और अपने पद का दुरुपयोग भी नहीं किया, जबकि अपने पद का अहंकार करनेवाले और उसका दुरुपयोग करनेवाले सन्त, आज भी अपने समाज में विद्यमान हैं. श्रद्धेय हजारीमलजी महाराज प्रकृति से सरल थे, मन से उदार थे और बुद्धि से विचक्षण थे. गंभीर विचार करना उनका सहज स्वभाव था. मधुर वाणी और कोमल व्यवहार करना उनका सहज धर्म था. न कभी किसी की निन्दा करना और न किसी की चापलूसी करना, उनका प्रकृति-सिद्ध गुण था. जो भी उनके निकट आया, उनका होकर ही लौटा. उनकी आत्मीयता की परिधि बहुत विशाल और व्यापक थी. वहाँ पर सब 'स्व' थे, कोई भी 'पर' न था. मधुर वाणी होने के कारण वे कभी किसी के साथ अप्रिय व्यवहार नहीं करते थे. सबके हित में ही वे अपना हित समझते थे. संघ-हित में और समाज-एकता में उन्हें गहरी निष्ठा थी. श्रमण-संघ से उनका सच्चा प्रेम था. संघ-विरोधी लोगों की हरकतों को वे पसन्द नहीं करते थे. स्वामीजी महाराज अवस्थासे वृद्ध होकर भी नये विचारों का समर्थन करते थे. समाज और संघ का हित ही उनका लक्ष्य था भले ही वह नये विचार से हो अथवा पुराने विचार से. यह है उनके अंतरंग जीवन का परिचय. शरीर दुबला-पतला होकर भी कद्दावर था. गेहुँआ वर्ण. मुस्कानभरा चेहरा. हृदय की सरलता और सरसता को अभिव्यक्त करने वाले सुन्दर नेत्र, लम्बी नासिका. सिर पर धवल-विरल केश-राशि. श्वेत श्मश्रु. धवल खादी के शुद्ध वस्त्र. गज जैसी गम्भीर गति. यह सब कुछ उनके दिव्यत्व का बाहरी रूप था, इसे मरुभूमि की जनता 'श्रद्धेय हजारीमलजी म० के नाम से पहचानती थी. संस्कृत और प्राकृत के वे पण्डित थे. आगमों के मर्मज्ञ और ज्ञान के सागर. उन्होंने कभी भी अपने ज्ञान का अहंकार नहीं किया, बोलने में और व्याख्यान में भी वे राजस्थानी भाषा का ही प्रयोग किया करते थे. उनकी भाषा में एक अद्भुत मिठास और आकर्षण था. राजस्थानी संस्कृति में उनका सम्पूर्ण जीवन रंग चुका था. बोलने में, लिखने में, खाने में, चलने में, फिरने में, खाने में, पीने में हर जगह वे मारवाड़ी थे. अपने को मारवाड़ी कहने में वे एक प्रकार का संतोष अनुभव करते थे. स्वामी जी महाराज लेखक नहीं थे, परन्तु निश्चय ही वे अपने युग के एक सरस प्रवक्ता थे. उनकी प्रवचन-शैली सीधीसादी होकर भी मधुर थी. ढाल और चरित्रों को वे बहुत ही सुन्दर ढंग से तथा मधुर स्वरलहरी में गाते थे. रामायण बाँचने में वे मारवाड़ के बे-जोड़ कलाकार थे. मारवाड़ का प्रसिद्ध राग ‘माड़' उनके श्रीमुख से बहुत ही आकर्षक और प्रिय लगता था. जिन लोगों ने उनके मुख से देवचन्द जी, आनन्दघनजी और विनयचन्द जी की चौबीसी सुनी है, वे भली-भांति जानते हैं कि उनके संगीत की स्वर-लहरी में कितना आनन्द था? कितना आकर्षण था ? कितनी तल्लीनता थी ? सुननेवाला श्रोता अध्यात्मरस की सरिता में डूब-डूब जाता था. अन्तरंग आनन्द में झूम-झूम जाता था. गाने वाला और सुननेवाला आत्म-विभोर हो जाता था. मुझको अनेक बार इस अध्यात्म-रस के अनुभव करने का परम सौभाग्य मिला था. विहार-यात्राओं में अनेक बार ऐसा आया, जब कि स्वामी जी महाराज और श्रद्धेय अमरचन्द्रजी महाराज-दोनों जमकर बैठ जाते थे और एक-दूसरे को सुनते सुनाते. 'स्वामी जी सुनाते आनन्दघन के अध्यात्म-पद और गुरुदेव सुनाते आचार्य सिद्ध सेन दिवाकर की और आचार्य समन्तभद्र की दार्शनिक स्तुति' उस समय हम लोगों को ऐसा लगता, जैसे मानो अध्यात्म और दर्शन-शास्त्र का सुन्दर समन्वय होकर, दो धाराएँ मिल-जुलकर एक विशाल महानद के रूप में प्रवाहित होकर जन-मन के ताप का परिहार कर रही हों. कितने सुखद, कितने सुन्दर, कितने मधुर और साथ ही कितने
___JaineKCO
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