Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ: १११
मुनि श्रीहजारीमल जी महाराज उन्हीं अध्यात्मनिष्ठ सन्तों की परम्परा में एक थे. उनके हृदय में नवनीत की मृदुता, वचनों में सुधा का माधुर्य, नेत्रों में पवित्रतम सात्त्विक तेज़ और व्यवहार में सन्तजनोचित सहृदयता थी. साठ वर्षों से भी अधिक समय तक वे वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के उत्थान में संलग्न रहे. जनता को अपने जीवनव्यवहार से और वाणी द्वारा भी श्रेयस् का पथ प्रदर्शित करते रहे और स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात् भी अपने मधुर एवं प्रेरणाप्रद संस्मरण छोड़ गए. इस पुण्य-पुरुष के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करके मैं अपने आपको गौरवशाली मानता हूँ.
श्रीहरिभाऊ उपाध्याय, शिक्षामंत्री राजस्थान, जयपुर
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महामुनि : एक श्रद्धांजलि सन्तों का जीवन आदर्श और पवित्र होता है. उनके दर्शन और सेवा मानव को शुभाचरण की प्रेरणा देते हैं. सन्त का प्रत्यक्ष जीवन जितना पावन होता है उनका स्मरण भी उतना ही पावन होता है. तपोधन मुनि श्रीहजारीमलजी म० के प्रत्यक्षीकरण का मुझे अनेक बार सौभाग्य प्राप्त हुआ है. उनसे दूर रहकर मैं जितना उनके जीवन से प्रभावित हुआ, निकट जाने पर मेरी श्रद्धा और भी बलवती होती गई. आज वे नहीं हैं. उनके तप-त्यागमय जीवन का प्रतिबिम्ब उनके शिष्यों में पाकर मैं हार्दिक प्रसन्नता अनुभव कर रहा हूँ. किसी भी सन्त के आदर्श हम में कितने मुखरित हो रहे हैं ? यह है महत्त्वपूर्ण प्रश्न. उनके उपदेशों के तथा उद्देश्यों के अनुरूप सामाजिक चलें तो निश्चय ही समाज का आध्यात्मिक अभ्युदय हो सकता है. सं० २०१४ में उनका चौमासा जोधपुर था. तब और इससे पहले अनेक बार उनकी चिकित्सा-सेवा करने का अवसर मुझे मिला है. उस अलौकिक महापुरुष के साक्षात्कार से मेरे मन और आत्मा में परमशक्ति और संतोष प्राप्त हुआ. २०१४ के बाद उनसे शुभ मिलन नहीं हो पाया. आज उस शान्त मनीषी का स्मरण करते हुए मेरी सन्त पुरुषों पर गहरी श्रद्धा उभर कर ऊपर आ रही है. उनकी स्मृति को चिरस्थायी करने के उद्देश्य से 'स्मृतिग्रंथ' का आयोजन बहुत सुन्दर लगा. उस अदृश्य पुरुष को मेरे अनेकों भाव-प्रणाम और शुभ स्मरण.
पं० उदयचन्द्र भट्टारक, आयुर्वेदमार्तण्ड, प्राणाचार्य, वैद्यावतंस महोपाध्याय, राजमान्य राजवैद्य..
उनके तीन गुण महान् पवित्र आत्मा मेरे गुरुदेव ! तुम्हें कैसे श्रद्धांजलि अर्पित करूं ? गुरुजनों की आज्ञा है कि मैं अपने मनोभाव लिखू. पर सोचती हूँ मुझ में सामर्थ्य कहाँ ? गुरुदेव के गुण तो अनन्त हैं. कबीर के शब्दों में अगर सम्पूर्ण पृथ्वी का कागज बनाया जाय, सम्पूर्ण वनराजि के वृक्षों की कलम और सभी समुद्रों की स्याही बनाई जाए तो भी हृदय में उल्लसित भावों को लिखना संभव नहीं. गुरुदेव ! आपकी महिमा निराली थी. आज मुझे अपना अतीत स्मरण हो उठा है, बाल्यकाल से ही आपकी कृपादृष्टि का सौभाग्य मुझे मिल गया था. पिता, पति, स्वसुर आदि के वियोग के वज्र जब मुझ पर गिरे उस समय आप ही ने बड़े आश्वासन भरे मधुर व हृदयस्पर्शी शब्दों में सान्त्वना दी थी--'यह संसार परिवर्तनशील है. सभी को काल के गाल में समाना है, मृत्यु के सामने किसी का वश नहीं चलता, अत: धैर्य धारण करो.' आज मुझे वह सब कुछ याद आता है,
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