Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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११४: मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
हृदयंगम हों उनकी शिक्षाएँ
पूज्य गुरुदेव श्रीहजारीमलजी म०, दया, क्षमा, विनय, कर्मठता, साहस, स्फूर्ति, दूरदर्शिता, विवेक, निर्भीकता, विनोदप्रियता, भावुकता और ऐसे ही न जाने कितने गुणों के भण्डार थे.
वे वाणी में मधुरिमा, संयममार्ग में एकनिष्ठा, दिव्यज्ञान एवं पांडित्य का वैभव लेकर संयमपथ पर अग्रसर हुए थे. उनका यही रूप मुझे उनमें प्रारम्भ से अंत तक दिखाई देता रहा.
समय-समय पर मुझे दर्शन करने का सुअवसर मिला था. वे श्रमणसंघ में मंत्री पद पर विभूषित थे संघ की प्रगति के लिए उन्होंने अविश्रान्त परिश्रम, लगन और त्याग के साथ काम किया.
गुरुदेव के चरणों में श्रद्धा पूर्वक शत-शत वन्दन करके प्रतिज्ञाबद्ध होता हूँ कि उनकी अमृत तुल्य शिक्षाएँ जीवन में
उता
श्री पारसमल बाफना
सत्संग के दुर्लभ क्षण
स्वामी श्रीहजारीमलजी म० के सत्संग के लिये उनके सत्संग में व्यतीत हुये क्षण, मस्तिष्क में स्वामीजी म० सरलता, सहृदयता, साधुता की सजीव मूर्ति थे. आपके प्रभावक व्यक्तित्व से सहस्रों व्यक्ति लाभान्वित हुए हैं तथा आपके जीवन से अपूर्व प्रेरणा ग्रहण कर बहुत से साधक सत्यपथ पर आगे बढ़े हैं. मुनिश्री के मिलन की मधुर स्मृतियां अविस्मरणीय हैं.
श्रीकन्हैयालाल लोढा, केकड़ी
उस पुण्य-पुरुष के प्रति
भारतीय संस्कृति जीवन के बाह्य और आन्तरिक, दोनों पक्षों का सामंजस्य साधती है. इस संस्कृति की यह एक उल्लेखनीय और अभिनन्दनीय विशिष्टता है. जीवन के दोनों पक्ष यथार्थ हैं और उनमें से किसी एक की उपेक्षा करके दूसरे पर ही बल देना जीवन की समग्रता को अस्वीकार करना है. यह अस्वीकृति वैयक्तिक ही नहीं सामाजिक जीवन के लिए भी घातक सिद्ध होती है. इसी कारण भारत की संस्कृति में जीवन की समग्रता पर पूरा-पूरा लक्ष्य दिया गया है. भारतवर्ष की संस्कृति चिर-पुरातन है. उसके उद्गम का पता लगाने के लिए कोई साधन आज उपलब्ध नहीं है. ऐसा होने पर भी उसकी धारा सतत परिवर्तनशील रही है. उसके निर्माण, संशोधन और परिवर्धन में भारतीय सन्तों का प्रमुख हाथ रहा है.
वास्तव में हमारी संस्कृति में जो दिव्यता, भव्यता अंतर्मुखता और पूर्णता के तत्त्व हैं, वे प्रायः सन्तों की ही देन हैं. उन सन्तों ने भोग-विलासमय जीवन से ऊपर उठकर त्यागमय जीवन अंगीकार किया, जन कोलाहल से दूर रहकर एकान्त वनवास अंगीकार करके जीवन के गहन रहस्यमय तथ्यों का चिन्तन, मनन और निदिध्यासन किया और तब अपने अनुभवों को प्रकाशित किया. उनकी इस तपश्चर्या के परिणामस्वरूप ही हमारी संस्कृति में आध्यात्मिकता का अमृत प्रवाहित है
उपलब्ध जीवन के अपने क्षणों को मैं परम पवित्र मानता हूँ. आज भी आते हैं तो आह्लाद की अनुभूति होती है.
भारतवर्ष भौतिक विद्याओं में भले कई देशों से पीछे हो, मगर अध्यात्मविद्या में वह सदैव सब से आगे रहा है और अपने इस वैशिष्ट्य के लिए आज भी गौरव का अनुभव कर सकता है.
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