Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : ८५ ऐसे महात्माओं की गुणावलियों का स्मरण कर उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने में लेखक अपने को कृतकृत्य समझता है. लेखक को स्वामीजी महाराज के प्रथम दर्शन का सौभाग्य अपने बचपन में ही प्राप्त हो गया था. लेखक के पिताजी ने स्वामीजी महाराज के सम्बन्ध में उन दिनों बातचीत के दौरान में कहा था कि- स्वामीजी 'चौथे आरे की बानगी' हैं. तब से स्वामीजी के स्वर्गारोहण तक लेखक का स्वामीजी से परिचय रहा और इस बीच सैकड़ों बार स्वामीजी की सत्संगति का लाभ लेखक को मिलता रहा. स्वामीजी से समाज को कुछ न कुछ सत्प्रेरणा व स्फूर्ति प्राप्त होती रहती थी. उच्च भावों की प्रगति में स्वामीजी के दर्शन सदा सहायक बने रहते थे. स्वामीजी का सौम्य मुख-मण्डल और मीठे वचन अनायास ही सम्पर्क में आनेवाले व्यक्ति को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे. व्यावहारिक रूप में स्वामीजी मनोविज्ञान के महान् पण्डित थे. सांसारिक लोगों की स्थिति का विचार रखकर ही वे जनता को उपदेश करते थे. जिससे शनैः शनैः श्रोता की अभिरुचि आध्यात्मिकता की ओर बढ़ती रहे. दुरूह शास्त्रीय भावों को लोकभाषा में प्रकट करने और उन्हें जनमानस में अंकित करने की कला में स्वामीजी निपुण थे. सरलता स्वामीजी में कूट-कूटकर भरी हुई थी। स्वामीजी सरलता के मूर्तिमान स्वरूप थे. ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना में वे उच्चतर भूमिका पर पहुँचे हुए थे किन्तु अपनी आराधना का इजहार उन्होंने कभी नहीं किया. स्वामीजी गोस्वामी तुलसीदासजी के इस कथन को मानते थे कि:
'पुण्य प्रकट ना कीजिये, करिये पाप प्रकाश,
प्रकट किये दोउ घटत है वरणत तुलसीदास !' स्वामीजी महाराज अपनी छोटी-सी कमजोरी को भी बृहद् रूप में महसूस करते थे और यही कारण है कि कमजोरियाँ उनसे दूर भागती थीं. जागतिक प्रपंच से वे कोसों दूर रहते थे. इंच भर भी वे सत्य और अहिंसा के मंच से नीचे नहीं उतरे. इस महापुरुष ने जिन्दगी में जो पाया वह सब कुछ सांसारिक प्राणियों के उपकार के लिये बाँट दिया. छोटे-छोटे ग्रामों में भी स्वामीजी ने धर्म-प्रचारार्थ भ्रमण किया और भोले-भाले लोगों को सत्पथ पर आरूढ़ होने की प्रेरणा दी. स्वामीजी उन इने-गिने साधुओं में थे जिन्हें लोगों ने साम्प्रदायिक दृष्टि से नहीं देखा, जैन तथा जैनेतर सभी लोग स्वामीजी से धर्म श्रवण का अवसर पाने में अपना अहोभाग्य समझते थे. संकीर्ण परिधि को लांघकर विश्व कल्याणार्थ अपने जीवन को लगा देना स्वामीजी का लक्ष्य था. वैसे स्वामीजी स्वयं स्थानकवासी साधु परंपरा के थे किन्तु दूसरे मजहब व सम्प्रदायों से स्वामीजी को द्वेष नहीं था. न स्वामीजी को इस बात का कदाग्रह था कि 'मेरा सो सच्चा' बल्कि स्वामीजी तो 'सच्चा सो मेरा' कहने में संतोष प्राप्त करते थे. उनकी भव्य आकृति के दर्शन मात्र करने से ही श्रद्धा व भक्ति दर्शकों में प्रस्फुटित होती थी. व्यक्तिगत महत्वकांक्षा स्वामीजी को छू तक न सकी. प्रातः स्मरणीय पू० जयमलजी महाराज की सम्प्रदाय के आचार्य बनाने का प्रश्न आने पर स्वामीजी ने आचार्यपद पर स्वयं आसीन होने से इंकार किया और अपने लघुभ्राता पण्डित रत्न मिश्रीमलजी महाराज का नाम निर्दिष्ट किया. 'पुत्ताय सीसाय भवित्ता' की उक्ति के अनुसार पण्डित मुनि श्री मिश्रीमलजी की योग्यता बढ़ाने का सम्पूर्ण श्रेय स्वामीजी महाराज को है जिनकी छत्रछाया में पण्डित मिश्रीमल जी महाराज ने ज्ञान-ध्यान की आराधना की और जैन जगत् के समक्ष निर्मल प्रकाश देनेवाले सितारे के रूप में जिन्हें हम आज देखकर गौरव अनुभव कर रहे हैं. स्वामीजी का समस्त जीवन संसार से विरक्त, उदासीन व निस्पृह था और वे स्वच्छ, निर्मल तथा उज्ज्वल मुनि जीवन के भोक्ता थे. स्वामीजी उन सभी साधु के लक्षणों से ओत-प्रोत थे जो श्रमण भगवान् महावीर ने साधु के लिये बताये हैं :
नाण-दसण-सम्पन्नं संजमे य तवे रयं,
एवं गुणसमाउत्तं संजय साहुमालवे ! श्रमण संघ के निर्माण के समय भी स्वामीजी महाराज ने अपना पूर्ण लक्ष्य उस तरफ रखा. स्वामीजी का विश्वास था
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