Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
श्री धीरजलाल के० तुरखिया
जिनशासन की विमल विभूति - सन्त
अवसर्पिणिकाल में भरत क्षेत्र में अनेक विभूतियाँ जिनशासन में हो चुकी हैं. महान् यशस्वी आचार्य श्रीजयमलजी महाराज की सम्प्रदाय में मुनि श्रीहजारीमलजी महाराज भी एक विभूति थे.
आप बड़े ही शान्त, दान्त, गंभीर और सौम्य प्रकृति के भद्रपरिणामी सन्त थे. विहार क्षेत्र विशेषतः मरुभूमि ही आपका था. आप जैसे सन्तों के योग से शुष्क मरुभूमि भी धर्म-उद्यान से सदा हरी-भरी थी.
आपश्री से मुझे सर्वप्रथम ब्यावर गुरुकुल के अधिष्ठाता के नाते, साधुसम्मेलन के मंत्री के नाते, और अ० भा० २० स्था० जैन कान्फरेन्स के मंत्री के नाते व श्रावकसंघ के विनीत सेवक के नाते अनेक बार दर्शन करने मिलने और निकट परिचय में आने व सत्संग करने के अवसर मिले. हर समय आपको शान्त चित्त और समत्वभाव में प्रतिष्ठित देखकर हृदय उल्लसित होजाता था.
आपके शिष्य पं० मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' को पूज्य श्रीजयमलजी महाराज के पाटानुपाट के लिए नागौर में आचार्य पद दिया गया था तब भी आप समरसी भाव में ही पाये गये. अहंकार का स्पर्श न हो पाया था.
और तो क्या दुःख, दर्द में भी आपमें वही समरसी भाव पाया जाता था. किसी की आलोचना होती हो तो वैसे प्रसंग से सदैव दूर ही रहा करते थे. उनका विरोधी कोई था ही नहीं, अगर किसी विघ्नसंतोषी ने कभी विरोध भी करना चाहा तब भी आप अपने समत्वमूलक भाव से उपरत नहीं हुए, दर्शनार्थी के द्वारा सुखशान्ति की पृच्छा करने पर आपके श्रीमुख से 'आनन्द-मंगल' की ही प्रति ध्वनि सुनी जाती थी.
किंबहुना, कभी क्रोधादि कषायों ने आपको स्पर्श ही नहीं किया था. आपके सरल विमल आचार और विचारों की सादगी देखकर निकटभव्यता के लक्षण स्पष्ट ही परिलक्षित होते थे. चौथे आरे की बानगी रूप सन्तश्रीजी थे. समता रस के समुद्रवाले किसी के दिल को न दुखाने में सदा जागृत, दयानिधि, परम गुणग्राहक, सौम्यमूर्ति, भद्रपरिणामी मुनि श्री हजारीमलजी म० को जिसने भी एक बार देखा होगा वह कभी भी उनके जीवनोत्कर्षमूलक गुणों को और स्वभाव को विस्मृत नहीं कर सकता है. ऐसे संसार में आदर्श दिव्य पुरुष को मेरे कोटिशः भाववन्दन हैं.
पं० रघुवीर सहायजी शर्मा, आयुर्वेदाचार्य.
पावन संस्मरण
साधुपुरुष, संसार के उद्धारकर्ता हैं क्योंकि वे 'शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: ' के सिद्धान्तानुसार सर्वभूतात्मैक्य का अनुभव करते हैं. और वीतराग होकर कंचन और काष्ठ में समत्व साधकर अपनी इच्छाओं की आहुति देते हुए अपने जीवन को आत्मसाधना, ज्ञानोपदेश, व जनकल्याण के लिये अर्पित कर देते हैं. काम, क्रोध इत्यादि निराकार प्रबल शत्रुओं को पराजित कर अपने जीवन को तपःपूत बनाना ही अपने जीवन का परम ध्येय बनाकर चलते हैं.
काम, क्रोध, लोभ, मोह के गर्त में फँसे हुए तथा अन्य जघन्य कार्यों में रत व्यक्तियों का उद्धार सन्तों के सदुपदेशों से हुआ है. और वर्तमान में भी कितने ही कुमार्गगामी, विलासी तथा कंचनकामिनी के पीछे अपने धर्म-कर्म व जीवन के उद्देश्य को भूल जानेवाले व्यक्तियों को अपने सदुपदेशों से मोड़कर सन्त-जन ही उचित मार्ग पर लाते हैं.
श्वेताम्बर, स्थानकवासी जैन-सन्तों में आचार्य श्रीजयमलजी महाराज को सम्प्रदाय के समुज्ज्वल रत्न पूज्यपाद श्रीहजारीमलजी महाराज एक उच्चकोटि के महान् योगी, तपोधन, अध्यात्मनिष्ठ सरल एवम् सौम्य, ज्ञानवृद्ध तथा
चक्र | ऋच वर वर
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