Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियां : १७
आँखें कितनी ही बरसें, हृदय कितना ही पसीजे, मन कितना ही भीगे, पर काल की भयंकर आँखें कभी नहीं भीगतीं. उस दिन सुना पूज्य मुनिमना मरुधरा मंत्री श्रीहजारीमलजी महाराज काल की आंखों आ गये, तो विश्वास नहीं हुआ था. परन्तु अविश्वास का महल जल्दी ही ढह गया.
और फिर मैं सोचने लगा--" उनके स्वर्गवास से मरुधरा सूनी हो गई. क्योंकि मरुभूमि में वे आध्यात्मिक भावों के केन्द्रस्थल थे. मरुभूमि का हर श्रद्धावादी उनमें अपनी श्रद्धा अर्पित करके स्वयं को भवभ्रमण से मुक्त अनुभव करता था. मेरी जिन्दगी का वह सुनहरा दिन था, जिस दिन (सं० २०१५) कृपालु गुरुदेव अपनी पद-रज से मेरे गांव सिरयारी ( राणावास) को पावन करने पधारे थे. मैंने इससे पहले उनके कभी दर्शन नहीं किये थे. दर्शन करते ही मन स्वतः ही उनके प्रति झुक गया था. सिरयारी का प्रत्येक व्यक्ति उनका भाषण सुनकर सदा के लिये उनके प्रति आस्थावान् हो गया था. उनके व्याख्यान की सर्वोपरि विशेषता थी— 'मधुरता' और 'सरलता'. धर्मजागरण और ज्ञानार्जन की वे जिन भावों में भीगकर प्रेरणा प्रदान करते, उन भावों को सुनकर अपने हृदय कक्ष में धर्मनिष्ठा और ज्ञान की अखण्ड लौ प्रज्वलित करने की इच्छा बलवती हो उठती थी.
उनका जन्म टाङगढ़ (मेवाड़) के समीप डांसरिया ग्राम में हुआ था. यह गांव पर्वतों के बीच बसा हुआ है. इस गांव में जन साधारण में भी पर्याप्त स्नेह और सद्भाव है. यह आन-शान पर प्राण देने वाले मेवाड़ की अपनी निजी विशेषता है. यही कारण है कि स्वामीजी म० के स्वभाव को उसने अत्यन्त करुणामय बना दिया था.
उनके पुण्य दर्शन करके मेरे मन में इस कामना ने जन्म ले लिया था कि कुछ समय तक इस आत्मा के चरणों में रहूं. पर दुर्देव को वह स्वीकार न था. उसने मेरे मनोदेवता को छीन लिया.
मेरा मन उनके प्रथम दर्शन से ही झुक गया था. आज भी मेरा मन श्रद्धा से उनके प्रति झुका जा रहा है.
उपाध्याय श्रीहस्तीमलजी म० कबहुं न बिसरु' ! श्रमण संस्कृति का मूल समता पर अवलम्बित है. क्षणभंगुर भुक्ति पथ से मन मोड़कर, अटल-सुखद - निर्मल-मुक्ति की ओर, सहज-सरल, सात्विक गति से बढ़ना एवं इसके अवरोधक अज्ञान और मोह को वायु प्रेरित सघन घन की तरह दूर करना ही, इस संस्कृति का पवित्रतम लक्ष्य माना गया है जो समभाव से ही सिद्ध हो सकता हैं. स्वामी श्री हजारीमलजी म० वस्तुतः श्रमण संस्कृति एवं समत्व के एक मूर्तिमान् सजीव प्रतीक थे.
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उनकी सहज-सरलता, भद्रता, सहनशीलता, आत्मीयता, समता और सहृदयता आज भी जन-मानस में सम्मान पा रही है और उनकी सौम्याकृति नयनों में नाच रही है. अतः गुणमय शरीर से आज भी स्वामीजी हमारे सामने हैं और आगे भी रहेंगे.
स्वर्गवास के कुछ मास पूर्व ही उनके पवित्र दर्शन और सुखद सहवास का सुअवसर प्राप्त हुआ था. निकट से देखा तो पाया कि वे मान, सम्मान और महिमा पूजा की कामना से सर्वथा परे थे. स्वामीजी के जीवन में 'समयाए समणो होइ' इस सूत्र का साक्षात्कार होता था और 'समो निंदापसंसासु' का अन्तर्नाद गूंजता रहता था. उनके निश्चल मन में पद की कोई कामना नहीं थी, भीनासर सम्मेलन में मंत्रीपद से सुशोभित होने पर भी उनमें गर्वातिरेक नहीं दिखाई दिया. सचमुच श्रमण जीवन का ऐसा ही पुनीत आदर्श संसार को शान्ति का पाठ दिखाने में सफल हो सकता है. इस तरह आपका श्रमण जीवन, उस विराट् सत्य का एक खुला पृष्ठ है जो सदा सबके लिए परमोपयोगी सिद्ध हो सकता है. पूर्व परम्परा से उनका हमारा निकटतम सम्बन्ध रहा है. जयमल्लजी म० और पूज्य कुशलोजीम० परस्पर गुरु भाई थे और उन दोनों में प्रगाढ़ प्रेम और असाधारण बन्धुभाव था. आप पूज्य आचार्य श्रीजयमल्लजी म० की सप्तम पीढ़ी में थे और हम कुशलोजी म० की सप्तम पीढ़ी में हैं.
वे गुणागार थे. उनके किन गुणों का वर्णन किया जाय ! यहाँ तो 'कबहूं न बिसरु हो चिताएं नहीं' का संगीत गूंज रहा है.
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