Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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११० : मुनि श्रीहजारीमलजी स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
वस्त्र भी मधुर अर्थात् श्वेत थे जो निर्मलता और पवित्रता के प्रतीक थे. 'बलितं मधुरं' उनका आत्मबल असाधारण था. इसलिये भक्तों के लिये वह भी मधुर था. वे अपने आत्मबल का उपयोग अधिक से अधिक साधनात्मक जीवन को सुदृढ़ बनाने में करते थे. समरांगण में हजारों शत्रुओं का संहार करने वाले हजारों मिलेंगे मगर षड्रिपुओं पर विजय प्राप्त करने वाले हजारों में से एक ही [हजारीमल जी म.] थे. इससे उनका बल भी मधुर था. 'चलितं मधुरं' हंस की धीमी गति से वे संयम के मार्ग में पर्यटन किया करते थे. सन्तों का विहार भव्य जीवों के कल्याणार्थ ही होता है. अपनी मर्यादानुसार चलते हुए जो जनकल्याण करते थे. 'भ्रमितं मधुरं' उनका सादा-सा, भ्रमण करना भी बड़ा मधुर लगता था. जिस समय वे भ्रमण करते तो ऐसी अनुभूति होती मानो मानव मात्र के अभ्युत्थान का चिन्तन करते हुये एक सजग प्रहरी, आत्ममस्ती एवं मधुर मानस लिये भ्रमण कर रहा है. 'मधुराधिपतेरखिलं मधुर' उनका समग्र जीवनव्यवहार मधुरतासे ओत-प्रोत था. उनमें बालक-सी निश्छलता, कर्मठ युवक-सी कार्यदृढता, प्रौढ-सी गंभीरता और वृद्ध-सी अनुभवगरिमा थी. साधूचित गुणों से और अपने तप त्याग वैराग्यमूलक व्यक्तित्व से वे बरवस ही मन मोह लेते थे. उनके तपःपूत शरीर पर संयमीय सौन्दर्य था. चेहरे पर निःसीम शान्ति थी, वात्सल्य और मधुरता थी. पद उन्हें भाररूप लगते थे. अनावश्यक धूमधाम उन्हें बखेड़ा लगती थी. उनके जीवन में निस्पृहता का सागर लहराता था. मानवता की लहरें उठती थी. वे साधुता के सुनहरी रंगमहल में निवास करते थे. खुशामदियों के मीठे वचन उन्हें डिगा नहीं सकते थे. वे अपने संयमीय जीवन के प्रति पूर्ण बफादार थे. उन्होंने अपनी सफल साधना से जो उज्ज्वल ज्योति अपने जीवन में जगाई वह जैन समाज के लिये गौरव का विषय है. इस प्रसंग में एक पद्य स्मृतिस्थ हो आया है
दूर न कोई हो कभी, वह उपाय है कौन ? यही प्रश्न है विश्व में, यहाँ विश्व है मौन ! अन्त में मैं अपने श्रद्धासुमन उन महान् आत्मा को समर्पित करती हूँ.
कुमारी श्रीकुमुदिनी मुथा
कैसे करू अर्पित तुम्हें श्रद्धा-सुमन मेरे ? बड़ा होने का नाटक भी किया जाता है. कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं कि उनका अहंकार दया और करुणा को भी कुचल देता है किन्तु परम श्रद्धेय श्रीहजारीमलजी महाराज ऐसे नहीं थे. उन्होंने बड़प्पन का कभी अभिमान नहीं किया. उनके जीवन में जो कुछ था वह सहज था. वहाँ दिखावे और प्रदर्शन के लिए कुछ न था. करुणा और दया उनके जीवन में पूर्णतः साकार हुई थी. किसी को कष्ट या पीड़ा से घिरा हुआ देखते तो उनका हृदय पिघल जाता था. मैंने जीवन के कुछ क्षण उनके सान्निध्य में व्यतीत किये हैं. अनेकों बार पदयात्रा करते हुए ऐसे प्रसंग आए हैं जब अभावग्रसित, भाग्य के ठुकराए हुए मनुष्य, जीवन से निराश होकर अपना जीवनांत करने की मलिन बुद्धि से प्रेरित होकर इधर-उधर भटकते-मिले हैं. मुनिश्री ऐसे व्यक्ति को तत्काल पहचान लिया करते थे और वार्ता द्वारा उसकी मर्मपीड़ा को टू कर सारा राज खुलवा लिया करते थे. उसे जीवन जीने की कला सिखाते. उनके जीवन के अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो मुझे प्रमाद और आलस्य के क्षणों में प्रेरणा तो प्रदान करते ही हैं, जीवन को समुज्ज्वल बनाने का पाठ भी पढ़ाते हैं. उनका व्यवहार प्रत्येक मनुष्य के साथ, चाहे वह छोटा हो या बड़ा-समान रहता था. अतः युवा, वृद्ध, बाल सभी उनके दर्शन कर अपूर्व आनन्दानुभव करते थे. उनके विमल मन में छोटे-बड़े का भेद था ही नहीं. साथ वाले मुनियों का, मुनिव्यवस्थानुसार जो कार्य उनके करने का होता था, उसे वे स्वयं कर लिया करते थे. एक बार हम यात्रा कर रहे थे. कुछ मुनि उनसे आगे-आगे चल रहे थे. वे वृद्ध थे. अत: उनका पीछे और धीरे-धीरे चलना स्वाभाविक ही था. एक मुनि अपना पुस्तकों का थैला एक स्थान पर रख विश्राम करने के लिए रुककर चलने
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