Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : १५
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आयुवृद्ध महात्मा थे. सन् १९४३ में सेठ इन्द्रचन्द्रजी गेलड़ा ने अपनी मातेश्वरी की स्मृति में 'श्रीजिनेश्वर' धर्मार्थ औषधालय' की स्थापना की और औषधालय के द्वारा जन-सेवा करने का प्रारम्भ से ही मुझे अवसर मिला. इस सुयोग के कारण ही स्वामीजी महाराज अपने गुरुभाई परम सेवाभावी श्रीब्रजलालजी महाराज तथा पंडित-प्रवर श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' के साथ मुनित्रयी के रूप में कुचेरा पधारे. तभी महाराजश्री के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ. लम्बा कद, गोधूमवर्ण, प्रशस्त विशाल ललाट, आजानुबाहु, शांत एवं मुनि जनोचित कांतिमयी मुखाकृति सर्व साधारण के हृदयों में शान्ति का संचार करती थी, साधारण व्यक्तियों को बाल्यकाल में माता-पिता एवं निकटतम सम्बन्धियों का स्नेह अपनी ओर खींचता है. विविध प्रकार की बालसुलभ क्रीड़ाएँ तथा आमोद-प्रमोद व प्रलोभन सामने आते हैं. काल गति करता जाता है, यौवन का आगमन हो जाता है. व्यक्ति सुखों की कठोर शृंखलाओं में बँध जाता है. किंतु सन्तहृदय आत्मा एक विशिष्ट आदर्श लेकर उपस्थित होता है. महामहिम मुनिराज को सांसरिक भोग तथा सुख अपनी तरफ आकृष्ट नहीं कर सके. आपने भौतिक वैभवों को तृणवत् त्याग दिया था और दुर्दमनीय चंचल मन की गति को मोड़ कर अध्यात्म-साधना की ओर प्रेरित किया था. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आपने केवल ११ वर्ष की सुकोमल वय में ही भागवती दीक्षा धारण की थी. दीक्षा लेने के उपरान्त ३२ वर्ष तक गुरुचरणों की सेवा में रत रहते हुए मुनिवर ने संस्कृत, प्राकृत गुजराती, हिन्दी, ब्रज एवं राजस्थानी भाषा का अध्ययन किया. जैन-धर्म के अनेकों ग्रंथों को हृदयंगम किया और गुरुवर के साथ मरुभूमि के विविध स्थानों पर भ्रमण करते हुए अपने जीवन को तपःपूत बनाया. गुरुवर का शरीर आत्मलीन होने के बाद संवत् १९८६ से स्वामीजी का स्वतंत्र विचरण प्रारंभ हुआ. अपने सरल सुबोध उपदेशों की अमृतमयी वाणी की अजस्र धारा से जन-साधारण के हृदयों में अध्यात्म और नैतिकता का संचार किया. लगभग ६४ वर्ष तक मुनिवर ने संयमपूर्ण तथा कठिन साधनायुक्त साधु-जीवन बिताया. स्वामीजी बड़े ही शान्त सरल, और उच्चकोटि के भद्र सन्त थे. मुनिवर का जीवन सर्वजन प्रशंसनीय रहा. आप हृदय के इतने विमल और सरल थे कि संसार से पद्मपत्रवत् पूर्ण निलिप्त तथा पूर्ण विरक्त रहते हुये भी संपर्क में आनेवाले साधारण तथा विशेष सभी व्यक्तियों से उनकी सुख सुविधा के विषय में साधारणत: संतोषजनक वार्तालाप कर, सबको शान्ति का उपदेश दिया करते थे. आपका स्नेह व सदुपदेश केवल जैन-जगत् तक ही सीमित नहीं था. जैन व जैनेतर सभी के साथ आप सरल व मधुर बर्ताव के अभ्यासी थे. उन्होंने जहाँ भी चातुर्मास किया वहाँ के वातावरण में सर्वत्र शान्ति तथा प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो जाता था. वर्षाऋतु में तप्त भूमि पर मेघ उन्मुक्त रूप से बरस कर उसे हरी-भरी तथा शस्य-श्यामला बना देता है, वैसे ही दुःख क्लेश, द्वेष, वैमस्य, से दुखी हुए सर्वसाधारण के हृदय, स्वामीजी के उपदेशों की शीतल धारा से शान्ति प्राप्त करते थे. विविध धर्मावलम्बी जनता दूर-दूर से आकर्षित होकर स्वामीजी के दर्शनार्थ और सदुपदेशों को श्रवण करने के लिये उत्सुकतापूर्वक आया करती थी. जहाँ-जहाँ भी मुनिवर चातुर्मास के लिये या विचरण काल में पधारे, वहाँ सबने उनको अपना ही माना और साम्प्रदायिक भेदभाव से दूर रहकर स्वामीजी के चरणों के दर्शन प्राप्त कर अपने को कृतार्थ किया. उनका अपने गुरु-भाइयों के प्रति इतना स्नेह था कि आजतक बहुत से लोग यह भी नहीं जान पाये कि ये गुरुभाई हैं या गुरुशिष्य. दोनों गुरुभाइयों ने भी आपको गुरु के समान ही समझा. पिछले पाँच-सात वर्षों से मुनिराज को हृदय-व्याधि का कष्ट विशेष रूप से रहा करता था. चिकित्सकों की यह राय थी कि स्वामीजी को अब विशेष परिभ्रमण छोड़कर एक स्थान पर विराजमान हो जाना चाहिये. श्रावकों की भी अनेक बार यही विनती रही. परन्तु स्वामीजी ने अपने उपदेशों से जनता को वंचित रखना कभी उचित नहीं समझा.
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